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अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: बढ़ते कबूतरों से निपटने की चुनौती

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: August 30, 2024 10:49 IST

मंदिर के पुजारियों को कबूतरों को खाना देना बंद करने के लिए मना लिया और कबूतरों की आबादी अपने आप घट गई। भारत में भी पक्षी वैज्ञानिक डॉ. गोपी सुंदर और डॉ. सतीश पांडे अपनी वैज्ञानिक जानकारी के माध्यम से कबूतरों के बारे में बताने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अधिकारियों की इसमें कोई रुचि नहीं है।

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कई वर्षों पूर्व मैंने भारत की सिलिकॉन वैली की अधिकांश बहुमंजिला आवासीय इमारतों को ऊपर से नीचे तक बड़े नायलॉन की जाली में लिपटा हुआ देखा था, लेकिन मुझे इसका कारण उस समय ठीक से पता नहीं था। तकनीक में सिद्धहस्त युवाओं को मोटी तनख्वाह देने वाला यह दौलतमंद शहर, पिछले 25 सालों से भारत में सबसे ज्यादा नौकरी देने वाला शहर बनकर उभरा है। लेकिन इस महानगर के पास ‘उड़ने वाले चूहों’- भारतीय कबूतरों का कोई जवाब नहीं है।

रॉक कबूतर (कोलंबा लिविया) बढ़ती शहरी समस्याओं में से एक है. अगर आपको लगता है कि हमारे बढ़ते शहरों में रहने वालों के लिए सड़कों के गड्ढे, जल निकासी व्यवस्था की कमी, सड़क दुर्घटनाएं, जघन्य अपराध, मवेशी, आवारा कुत्ते, अनियंत्रित यातायात और प्रदूषण ही समस्याएं हैं, तो एक बार फिर से सोचें। ‘पंखों वाले चूहे’ या ‘फ्लाइंग  रैट’ एक अब बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं, जिसका अभी तक कोई समाधान नहीं दिख रहा है। भारतीय नीति निर्माता और शहरी प्रबंधक अभी तक यह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि कबूतर इंसानों को कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं। घातक कोविड-19 महामारी के बाद भी।

जून 1966 में संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क शहर के पार्क कमिश्नर थॉमस होविंग ने ‘उड़ने वाले चूहे’ शब्द का आविष्कार किया था।  चूहों की तरह ही कबूतर खाते हैं- बिना रुके और चूहों की तरह ही बेतहाशा प्रजनन भी करते हैं। शायद इसी वजह से उन्हें ‘उड़ने वाले चूहे’ नाम मिला।

चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि पक्षियों की ये प्रजातियां मनुष्य के फेफड़ों को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं क्योंकि उनके मल में खतरनाक बैक्टीरिया और अन्य वायरस होते हैं। जितने ज्यादा कबूतर  होंगे, उतना ज्यादा मल होगा और जितना ज्यादा वे आपकी खिड़कियों, बालकनियों और गैरेजों पर मल करेंगे, आप फेफड़ों की बीमारियों के प्रति उतने ही ज्यादा संवेदनशील होंगे।

मैंने बेंगलुरु का उदाहरण दिया है, लेकिन यह कबूतरों से लड़ने वाला एकमात्र शहर नहीं है। इस पक्षी प्रजाति ने अपने पंख लगभग हर जगह फैला लिए हैं। और चूंकि अधिकांश शहरों में आबादी तेजी से बढ़ रही है, इसलिए लोगों को एक और चुनौती से बचाने की तत्काल आवश्यकता है।

अगर आप गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि कबूतरों को खाना खिलाने का चलन जोरों पर है। ब्रेड का चूरा, पक्षियों के लिए कई तरह के खाने, अनाज, मुरमुरे, कच्चा गेहूं, सूखा आटा। तरह-तरह की चीजें लोग उन्हें अंतहीन रूप से खिला रहे हैं ताकि या तो उन्हें ‘पुण्य’ मिले और उनके जाने-अनजाने में किए गए पाप मिटें, या वे इसे केवल मनोरंजन के लिए, बिना सोचे-समझे करते रहते हैं।

अगर आप गेट-वे ऑफ इंडिया पर जाएं तो देखेंगे कि हजारों लोग बिना सोचे-समझे कोलाबा की खूबसूरत पुरानी इमारतों में घोंसला बनाने वाले लाखों पक्षियों को दाना खिला रहे हैं। यहां तक कि मुंबई के प्रतिष्ठित पांच सितारा हेरिटेज होटल ताज महल पैलेस को भी कबूतरों ने नहीं बख्शा। वहां के प्रबंधन को अपने मेहमानों के लिए दोपहर की शांतिपूर्ण नींद या व्यावसायिक मीटिंग आदि के लिए चारों ओर नायलॉन जाल लगाना पड़ा। कबूतरों को उस बेहतरीन इमारत का बाहरी हिस्सा पसंद नहीं है और उन्होंने सालों से इसे खराब कर रखा है। कबूतर हर जगह बदबूदार गंदगी फैलाते हैं।

हाल ही में, कुछ लोगों ने गुजरात और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों, खासकर उज्जैन में, सीमेंट के ‘बर्ड टावर’ बनाने का एक बेवकूफी भरा काम शुरू किया है। उन्हें उम्मीद थी कि इससे पक्षियों को ‘घरौंदा’ मिलेगा, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि ऐसे कृत्रिम आवास कभी किंगफिशर, गोल्डन ओरियोल, हॉर्नबिल, पैराडाइज फ्लाईकैचर या मोर को आकर्षित नहीं करेंगे। ऐसे टावर हमेशा कबूतरों के लिए आरामदायक प्रजनन स्थल बनेंगे।

यह एक ऐसी प्रजाति है जो महाकालेश्वर के पवित्र मंदिर में आने वाले लाखों पर्यटकों में फेफड़ों की बीमारी फैला सकती है। उज्जैन में कुछ ऐसे सीमेंट कांक्रीट के ‘बर्ड टावर’ बनते देख  पर्यावरणविदों और पक्षी विज्ञानियों ने कड़ी आपत्ति जताई है परंतु स्थानीय प्रशासन बेखबर है।

एक प्रसिद्ध वैश्विक कबूतर विशेषज्ञ और कबूतर नियंत्रण सलाहकार सेवा (PiCAS समूह), ब्रिटेन के संस्थापक गाय मर्चेंट ने कबूतरों के खतरे के बारे में विस्तार से काफी पहले लिखा है। कई शहर प्रबंधकों ने उन्हें कबूतरों की स्थानीय समस्या को हल करने के लिए आमंत्रित किया था। एक बार जयपुर के एक बड़े होटल ने उन्हें अपने पुराने किलेनुमा भवन से कबूतरों को हटाने के लिए बुलाया था, उन्हें तब पता चला कि समस्या होटल में नहीं थी; लगभग एक किलोमीटर दूर एक मंदिर था जो ‘हर सुबह कबूतरों के नाश्ते के लिए अपने दरवाजे खोलता था’।

 मर्चेंट ने मंदिर के पुजारियों को कबूतरों को खाना देना बंद करने के लिए मना लिया और कबूतरों की आबादी अपने आप घट गई। भारत में भी पक्षी वैज्ञानिक डॉ. गोपी सुंदर और डॉ. सतीश पांडे अपनी वैज्ञानिक जानकारी के माध्यम से कबूतरों के बारे में बताने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अधिकारियों की इसमें कोई रुचि नहीं है। लेकिन बढ़ती आबादी के चलते अब समय आ गया है कि भारतीय नगरपालिका अधिकारी कबूतरों को खाना खिलाने पर सख्त प्रतिबंध लगा दें।

वे हानिकारक जीव हैं, यह ध्यान रहे। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें जागरूक होना होगा। पांच रुपए का दाना डालकर पुण्य कमाने के बजाय प्रकृति के संरक्षण पर ध्यान देना होगा।

टॅग्स :बर्ड फ्लूभारतWildlife Institute of IndiaHealth Department
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