देश के दूसरे प्रधानमंत्नी स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्नी को उनकी अप्रतिम सादगी, नैतिकता और ईमानदारी के लिए तो याद किया ही जाता है, इस बात के लिए भी जाना जाता है कि उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सार्वजनिक जीवन मूल्यों को राजनीति की दूसरी पीढ़ी तक अंतरित किया.
स्वतंत्नता आंदोलन की आंच से तपकर निकले हमारे अनेक नेताओं में अकेले शास्त्नीजी ही हैं जो हमें सिखा सकते हैं कि कैसे नितांत विपरीत परिस्थितियों में भी मूल्यों व नैतिकताओं से विचलित हुए बिना अपनी खुदी को इतना बुलंद किया जा सकता है कि देश की जरूरत के वक्त उसकी नेतृत्व कामना को भरपूर तृप्त किया जा सके.
दारुण मौत ने उन्हें प्रधानमंत्नी के रूप में सिर्फ अठारह महीने ही दिए, लेकिन इस छोटी-सी अवधि में ही, खासकर 1965 में पाकिस्तान के हमले के वक्त अपने दूरदर्शी फैसलों से उन्होंने यह प्रमाणित करने में कुछ भी उठा नहीं रखा कि उनके कुशल नेतृत्व के रहते इस नेतृत्वकामना के लिए निराशा का कोई कारण नहीं हो सकता.
2 अक्तूबर, 1904 को मुगलसराय में माता रामदुलारी के गर्भ से जन्मे शास्त्नीजी का बचपन का नाम नन्हे था. पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव पहले एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे लेकिन बाद में राजस्व विभाग में लिपिक हो गए थे. वे नन्हे को अठारह महीने ही अपना स्नेह दे पाए थे कि दबे पांव आई मौत उन्हें उठा ले गई.
मां रामदुलारी नन्हे को लेकर मिर्जापुर स्थित अपने पिता हजारीलाल के घर गईं, तो थोड़े ही दिनों बाद हजारीलाल भी नहीं रहे. फिर तो नन्हे की परवरिश का सारा भार मां पर ही आ पड़ा और मां ने ही उन्हें जैसे-तैसे पाला-पोसा व पढ़ाया-लिखाया.
शास्त्नीजी ने अपना राजनीतिक जीवन भारतसेवक संघ से शुरू किया और उसी के बैनर पर अहर्निश देशसेवा का व्रत लेकर स्वतंत्नता संघर्ष के प्राय: सारे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की.
27 मई, 1964 को प्रथम प्रधानमंत्नी पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद 9 जून 1964 को शास्त्नीजी उनके स्थान पर प्रधानमंत्नी बने तो कहा कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता महंगाई रोकना और सरकारी क्रियाकलापों को व्यावहारिक व जन आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना है. बाद में उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ जैसा लोकप्रिय नारा दिया.