वाकई विजयादशमी का पर्व मातम में बदल गया। भले यह भयावह त्रसदी अमृतसर में घटी लेकिन पूरे देश में इसकी वेदना महसूस की जा सकती है। जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं हम उसका पोस्टमार्टम करते हैं।
किसी न किसी को या कई को दोषी ठहराते हैं। इस बार भी यही हो रहा है। कई प्रकार के प्रश्न उठाए जा रहे हैं। मसलन, रेलवे लाइन के पास रावण दहन का कार्यक्रम किया ही क्यों गया? लोग रेलवे लाइन पर खड़े क्यों थे? इसकी सूचना रेलवे को क्यों नहीं दी गई?
रेल वहां से गुजरी तो क्या चालक को लोगों की भीड़ नजर नहीं आई? ऐसा नहीं है कि ये सारे प्रश्न निर्थक हैं किंतु हम न भूलें कि उस जगह पर वर्षो से विजयादशमी को रावण दहन होता आ रहा है। रावण का पुतला रेलवे लाइन से 80-90 मीटर की दूरी पर था।
हर शहर में ऐसे स्थान निश्चित हो जाते हैं जहां विजयादशमी के दिन रावण दहन होता है। मैदान के साथ एक दीवार भी दिख रही है। रेलवे लाइन पर लोगों को वाकई नहीं जाना चाहिए था। लेकिन लोग ऐसी जगह खड़े होने की कोशिश करते हैं जहां से वो आसानी से पूरा दहन देख सकें।
आजकल तो मोबाइल पर वीडियो और फोटो लेना भी अभ्यास में शामिल है, उसकी सुविधा के लिए भी लोग उपयुक्त जगहों की तलाश करते हैं। यह बिल्कुल गलत है। हम अनेक अवसरों पर सामान्य अनुशासन और सतर्कता नहीं बरतते। जो वीडियो सामने आया है उसमें साफ दिख रहा है कि रावण दहन के दौरान ही कुछ सेकेंड के अंतराल में दो रेलें दो पटरियों पर आमने-सामने से आ गईं। इतना बड़ा खूनी हादसा हो गया, लेकिन हम इसे क्या कहें? रेल दुर्घटना कतई नहीं कह सकते। इस हादसे की तुलना दूसरे धार्मिक आयोजनों के अवसर पर होनेवाले हादसों से भी नहीं की जा सकती, न अफवाह, न भगदड़, न कोई आगजनी।
तो फिर ध्यान आयोजकों और प्रशासन की तरफ आता है। आयोजकों की ओर से बार-बार अपील की जानी चाहिए थी कि रेलवे लाइन पर न जाएं, रेल कभी भी आ सकती है। यह अपील की जाती रहती तो शायद लोग इसका ध्यान रखते। दूसरे, पुलिस की व्यवस्था वहां होनी चाहिए थी जो कि लोगों को रेलवे लाइनों पर खड़े होने से रोकती।
जब हर वर्ष वहां रावण दहन का कार्यक्रम होता है तो प्रशासन को स्वयं आयोजकों से बात करके उनके साथ सामंजस्य बिठाते हुए समुचित व्यवस्था करनी चाहिए थी। ऐसा न किया जाना प्रशासन की आपराधिक चूक है।
हर ऐसे खूनी हादसे हमें कई सीख दे जाते हैं जिनका ध्यान रखकर आगे से व्यवस्था की जाए तो इनकी पुनरावृत्ति की संभावना कम हो सकती है।