Assembly elections: सभी की निगाहें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर टिकी हैं, जो 29 मार्च से बिहार का दौरा करने वाले हैं, क्योंकि भाजपा नेतृत्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सार्वजनिक मंचों पर ‘अनियमित व्यवहार’ से चिंतित है, जो राज्य चुनावों से पहले विपक्ष को हथियार मुहैया करा रहा है. भाजपा नेतृत्व की रातों की नींद उड़ गई है, खासकर तब जब कुमार एक समारोह में राष्ट्रगान समारोह के दौरान मंच पर मौजूद प्रतिभागियों से बार-बार बात करने लगे. उन्होंने खड़े लोगों को देखकर हाथ हिलाया, हंसे और मुस्कुराए भी. नीतीश कुमार का ‘अस्थिर’ व्यवहार सहयोगियों के लिए चिंता का विषय रहा है.
क्योंकि वे अल्जाइमर से पीड़ित हैं, जो एक न्यूरो-डीजेनेरेटिव विकार है जो मुख्य रूप से स्मृति, सोच और तर्क को प्रभावित करता है, अंततः मनोभ्रंश की ओर ले जाता है और दैनिक जीवन को प्रभावित करता है. लेकिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व एक गंभीर दुविधा का सामना कर रहा है कि उसे क्या करना चाहिए क्योंकि नीतीश कुमार के खराब स्वास्थ्य के कारण कानून और व्यवस्था की गंभीर स्थिति और वस्तुतः प्रशासन भी प्रभावित हो रहा है. लेकिन उसे लगता है कि फिलहाल नीतीश कुमार के अलावा ‘कोई विकल्प नहीं है’ (देयर इज नो अल्टरनेटिव अर्थात ‘टीआईएनए’).
सुप्रीम कोर्ट में क्यों बढ़ रहे जमानत के मामले?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जांच पूरी होने के बावजूद ‘जो मामले बहुत गंभीर नहीं हैं’ उनमें भी ट्रायल कोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज किए जाने पर निराशा व्यक्त की थी. उसने आश्चर्य जताया कि दो दशक पहले, छोटे मामलों में जमानत याचिकाएं शायद ही कभी उच्च न्यायालयों तक पहुंचती थीं, शीर्ष अदालत की तो बात ही छोड़िए.
न्यायाधीशों ने कहा, ‘यह चौंकाने वाला है कि सुप्रीम कोर्ट को उन मामलों में जमानत याचिकाओं पर फैसला सुनाना पड़ रहा है, जिनका निपटारा ट्रायल कोर्ट स्तर पर किया जाना चाहिए.’ यह पहली बार नहीं था जब शीर्ष अदालत ने इस मुद्दे को उठाया हो. उसने बार-बार ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालयों से जमानत देने में अधिक उदार रुख अपनाने का आग्रह किया है, खासकर छोटे उल्लंघनों से जुड़े मामलों में.
लेकिन निचली अदालतों को दोष क्यों दिया जाए? नाम न बताने की शर्त पर एक कानूनी जानकार ने आश्चर्य जताया. उन्होंने याद दिलाया कि शीर्ष अदालत ने 1993 में यह चलन शुरू किया था, जब वह मशहूर जैन हवाला मामले में जज, जूरी और पुलिस बन गई थी और दिवंगत जस्टिस जगदीश शरण वर्मा राजनीतिक प्रतिष्ठान को हिला देने वाली प्रेरक शक्ति बन गए थे.
कोई भी निचली अदालत या उच्च न्यायालय कई वर्षों तक हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे और हर मुद्दे सीधे शीर्ष अदालत में आते थे. सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को आदेश दिया कि वह मंत्रियों, सांसदों या विधायकों सहित सभी अपराधियों को बिना किसी भेदभाव के एक ही श्रेणी में रखे. प्रगति रिपोर्ट समय-समय पर अदालत को सौंपी जाती और कोई भी अदालत किसी भी आरोपी को राहत देने की हिम्मत नहीं कर सकती. बाद में झामुमो और अन्य जैसे अन्य मामलों में भी यही चलन अपनाया गया.
इसलिए, करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ यह चलन अब भी जारी है. यह अलग बात है कि मंत्रियों सहित जिन अधिकांश आरोपियों को पद छोड़ना पड़ा, उन्हें शीर्ष अदालत की निगरानी में मामलों के बावजूद राहत मिली और वे बरी हो गए. लेकिन जमानत के लिए आरोपी लगातार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते रहे.
ग्रोक (मस्क) के साथ मजे की चुकानी होगी कीमत
आधिकारिक सूत्रों ने कुछ दिन पहले ही बताया कि एलन मस्क के एआई चैटबॉट ग्रोक से ऐसे सवाल पूछने पर, जिससे भड़काऊ प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं, उपयोगकर्ता के साथ-साथ प्लेटफॉर्म के खिलाफ भी आपराधिक कार्रवाई हो सकती है. ग्रोक द्वारा उपयोगकर्ता के प्रश्नों के हिंदी जवाबों में अपमानजनक शब्दों और अपशब्दों के इस्तेमाल को लेकर साजिश के और भी उलझने के बीच, एक्स ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की व्याख्या, विशेष रूप से धारा 79(3)(बी) के इस्तेमाल को लेकर केंद्र सरकार को अदालत में चुनौती देने का फैसला किया.
जिसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लंघन करने और ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करने का आरोप लगाया गया. एक बार जब अदालत में याचिका दायर कर दी गई, तो संबंधित मंत्रालय के अधिकारियों ने यह समझाने की जल्दी की कि ग्रोक एआई प्रतिक्रियाओं पर एक्स को कोई नोटिस नहीं दिया गया था.
अपने ही अधिकारियों को माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट पर उत्तेजक प्रश्न भेजने के लिए झिड़की दी. दरअसल, सरकार एलन मस्क से मुकाबला करने के मूड में नहीं है, जिन्हें राष्ट्रपति के बाद अमेरिका में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है. अधिकारियों को बताया गया कि अगर वे मजे के लिए ऐसा कर रहे थे, तो उन्हें दोषी पाए जाने पर अब कीमत चुकानी पड़ेगी.
केंद्र सरकार ने इस मामले पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ बातचीत शुरू की है, जिसे एक अधिकारी ने ‘अनौपचारिक चर्चा’ के रूप में वर्णित किया है. याचिका में दावा किया गया है कि धारा 79 (3) (बी) के तहत, सरकार एक्स पर पोस्ट की गई जानकारी को ब्लॉक करने का आदेश जारी नहीं कर सकती है. यह केवल आईटी अधिनियम की धारा 69 ए के तहत किया जा सकता है.
योगी के नक्शेकदम पर चल रहे अन्य राज्य !
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हाल ही में नागपुर दंगों में दंगाइयों से नुकसान की भरपाई लेने की चेतावनी दी थी, जबकि बिहार ने एनकाउंटर करने का फैसला किया. हालांकि कई लोगों का कहना है कि नीतीश कुमार के बिहार ने थोड़ी धीमी गति से काम किया है और इसे ‘हाफ एनकाउंटर’ कहा जाता है.
इसका मतलब है कि गंभीर अपराधों के आरोपियों को पुलिस घेर लेती है और उनके पैर में गोली मार देती है, जाहिर तौर पर आत्मरक्षा में, न कि उन्हें मौके पर ही मार दिया जाता है, जैसा कि यूपी या पंजाब में होता है. चुनावी राज्य बिहार में अपराध बढ़ने के बाद हताश नीतीश सरकार ने एनकाउंटर का सहारा लिया, लेकिन आरोपी मारे नहीं गए, बल्कि कई गंभीर रूप से घायल हो गए.
हालांकि फडणवीस ने सावधानी बरतते हुए कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो यह उपाय अपनाया जाएगा, लेकिन यह स्पष्ट संकेत दिया कि दंगाइयों को इसकी कीमत चुकानी होगी. महाराष्ट्र के अलावा राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश सरकारें भी दंगाइयों से नुकसान की भरपाई करने और यहां तक कि उनके घरों को ध्वस्त करने पर विचार कर रही हैं.
और अंत में
अगर आप किसी साधारण मुद्दे को जटिल बनाना चाहते हैं, तो सरकार का तरीका सीखिए. पिछले दिनों एक सांसद ने सवाल उठाया: क्या लोकपाल कार्यालय में निरीक्षण निदेशक और अभियोजन निदेशक के पद खाली पड़े हैं! सरकार ने जवाब दिया: लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के प्रावधानों के अनुसार, जांच निदेशक और अभियोजन निदेशक की नियुक्ति लोकपाल द्वारा की जानी है. इसने यह जवाब नहीं दिया कि पद खाली हैं या भरे हुए हैं. मजेदार बात यह है कि लोकपाल बजट सरकार द्वारा ही पास किया जाता है.