आलोक मेहता का ब्लॉग: चाय उत्पादन में लगे किसानों की समस्याओं पर भी ध्यान दें

By आलोक मेहता | Updated: December 9, 2020 13:01 IST2020-12-09T12:57:00+5:302020-12-09T13:01:04+5:30

सरकारी रिकार्ड के अनुसार 2019 में भारत में करीब 1340 मिलियन चाय के उत्पादन का करीब पचास प्रतिशत छोटे उत्पादकों द्वारा होता है. दुनिया भर में भारतीय चाय का निर्यात भी होता है.

Alok Mehta's blog: Also pay attention to the problems of farmers engaged in tea production | आलोक मेहता का ब्लॉग: चाय उत्पादन में लगे किसानों की समस्याओं पर भी ध्यान दें

सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो)

किसानों के लिए भारत की जनता, सरकार ही नहीं दुनिया के कुछ अन्य देशों से भी समर्थन सहानुभूति की आवाज उठ रही है. शायद ही कोई गांव या महानगर होगा, जो सुबह-शाम चाय पिये बिना आगे बढ़ता हो. खबरों से अधिक टीवी चैनलों अथवा फिल्मों में सुदूर क्षेत्नों में चाय के खेतों (शान के लिए बागान) की लहलहाती हरी पत्तियों और खेतिहर सुंदर महिलाओं और युवाओं को देखकर गीत-संगीत बजने लगता है.

मन प्रसन्न हो जाता है. लेकिन क्या आपको यह जानकारी है कि क्रांतिकारी बंगाल में देश के कुल चाय उत्पादन का अस्सी प्रतिशत चाय पैदा करने वाले लोगों को ममता सरकार या कम्युनिस्ट सरकारों ने अधिकृत रूप से ‘किसान’ का दर्जा नहीं दिया है.

उन्हें चाय उत्पादक कहकर, चाय के उद्योग से जुड़ा कहकर उन्हें देश के अन्य सामान्य किसानों की तरह छह हजार रुपयों की सहायता राशि या अन्य कोई सहायता नहीं दी जाती है. पराकाष्ठा यह है कि दार्जिलिंग क्षेत्न में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त क्षेत्न के अलावा बहुत कम जमीन पर चाय पैदा करने वालों को ‘दार्जिलिंग’ चाय लिखकर बेचने की अनुमति नहीं है.

भारत की विविधता, संस्कृति पर हम सब गौरव करते हैं और विरोधाभास पर दर्द भी महसूस करते हैं. विश्व के सबसे बड़े महान लोकतंत्न में अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता और राजनीतिक दलों अथवा किसान या श्रमिक अथवा स्वयंसेवी संगठनों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से अधिक है. फिर भी आजादी के 73 साल बाद भी ब्रिटिश राज जैसे कानून और कंपनियां चल रही हैं.

कभी दुश्मन बने ब्रिटिश राजा-रानी या प्रधानमंत्नी अब मित्न भी हो गए हैं. उनके देश में हमारे भारतीय मूल के दसियों नेता और मंत्नी भी हो गए हैं और वहां कई नियम-कानून बदल गए, लेकिन कभी उनके सहयोग से बनी चाय कंपनियों के नियम-कानून अंग्रेजी के साथ बांग्ला और हिंदी या असमिया में भले अनूदित हो गए हैं, लेकिन छोटे किसानों के हितों के लिए अब तक नहीं बदले हैं.

सूर्योदय तो पूर्वोत्तर से होता है. हक की आवाज सबसे अधिक वहीं से गूंजती रही है. वैसे बंगाल, असम, त्रिपुरा से लेकर सुदूर दक्षिण केरल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश में भी चाय की खेती हो रही है. पिछले करीब दस वर्षो से बिहार के पूर्वाचल किशनगंज क्षेत्न में भी चाय की खेती तेजी से बढ़ी है.

बंगाल में 2001 में करीब 8 हजार छोटे किसान (चाय उत्पादक) थे, जो अब बढ़कर लगभग 22 हजार हो गए हैं. मशहूर दार्जिलिंग है, लेकिन चाय का अस्सी प्रतिशत उत्पादन जलपाईगुड़ी के खेतिहर मजदूर कर रहे हैं. बंगाल और असम में सत्तर साल तक तो अधिकांश चाय उत्पादक किसानों को खेत पर हक के सरकारी दस्तावेज नहीं दिए गए थे.

उन्हें कंपनियों का मुलाजिम, मजदूर ही समझा जाता था. पिछले दो-तीन वर्षो में कागजपत्न मिलने शुरू हुए हैं. अंग्रेज चले गए, लेकिन सरकारी चाय बोर्ड केवल कंपनियों को ही मान्यता देता है. जो किसान दो हेक्टेयर से कम जमीन पर चाय की खेती करते हैं, उन्हें तो चाय उत्पादक सरकारी बोर्ड कोई छूट-सहायता के योग्य भी नहीं मानता है.

चाय बोर्ड से जुड़े उत्पादकों को चाय पत्ती संग्रह, तराजू मशीन, बैग, भंडारण के लिए सब्सिडी उद्योग के नाते दी जाती है. यही नहीं परिवहन के लिए अलग से पचास प्रतिशत राशि दी जाती है. लेकिन बेचारे हजारों छोटे किसानों के लिए अब तक कहीं कोई आवाज नहीं उठाता. उन्हें तो नो ऑब्जेक्शन (यानी स्वीकृति) का अधिकृत कागज भी चाय बेचने के लिए नहीं मिलता.

सरकारी रिकार्ड के अनुसार 2019 में भारत में करीब 1340 मिलियन चाय के उत्पादन का करीब पचास प्रतिशत छोटे उत्पादकों द्वारा होता है. दुनिया भर में भारतीय चाय का निर्यात भी होता है. दार्जिलिंग में केवल 87 चाय बागान को सरकारी बोर्ड की मान्यता है.

दूसरी तरफ बेंगलुरु से नौकरी छोड़कर वहां चाय की खेती के साथ उसकी बिक्री के लिए एक करोड़ का बैंक कर्ज लेकर फैक्टरी लगाने पर या छोटे किसानों द्वारा मिलकर बनाई गई सोसायटी की फैक्टरी को भी सरकारी बोर्ड सहयता देने को तैयार नहीं है. सवाल यह है कि ऐसे छोटे किसानों के दु:ख-दर्द के लिए आवाज क्यों नहीं उठती है?

Web Title: Alok Mehta's blog: Also pay attention to the problems of farmers engaged in tea production

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