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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं किसान आंदोलनकारी?

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 22, 2021 09:41 IST

पंजाब में आम आदमी पार्टी की दावेदारी इस समय सबसे ज्यादा मजबूत लग रही है. लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में किसे पेश करे.

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जन-आंदोलन किसी भी विचारधारा का हो, चुनाव का प्रश्न आते ही उसे उलझनों का सामना करना पड़ता है. इसी तरह की उलझन इस समय किसान आंदोलन के सामने है. यह आंदोलन फिलहाल भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल करके स्थगित हो चुका है और अब संयुक्त किसान मोर्चे के नेताओं में इस बात को लेकर बहस हो रही है कि उन्हें पंजाब में चुनाव लड़ना चाहिए या नहीं. 

पंजाब की परिस्थितियों पर नजदीकी निगाह रखने वाले कुछ समीक्षकों की मान्यता रही है कि अगर संयुक्त किसान मोर्चा राजनीतिक मंसूबा बना कर सारे पंजाब में अपने उम्मीदवार खड़ा कर दे तो वह चुनाव की प्रक्रिया को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकता है. यह भी कहा जाता रहा है कि जिन किसान परिवारों ने अपने लोगों को साल भर चले धरनों के दौरान खोया है, अगर उनके परिजनों को टिकट दिया जाए तो मतदाता उन्हें वोट देने के बारे में जरूर सोचेंगे. 

उस सूरत में अन्य पार्टियों को भी किसान आंदोलन की इस चुनावी पहलकदमी के साथ कुछ-न-कुछ समायोजन निकालना पड़ेगा.संभवत: इसी तरह की समझ के तहत किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने नई पार्टी बनाने का ऐलान करते हुए कहा है कि वे स्वयं चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन लड़वाएंगे. चढ़ूनी पहले भी चुनाव लड़ने का मंसूबा जाहिर करते रहे हैं. 

दूसरी तरफ पंजाब में पिछले दिनों चर्चा यह भी रही है कि एक अन्य वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नेता बलबीर सिंह राजेवाल आम आदमी पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए जा सकते हैं. पिछले दिनों सी-वोटर के सर्वेक्षण ने बताया था कि आम आदमी पार्टी इस समय लोकप्रियता की दौड़ में सबसे आगे है और उसे 38 फीसदी वोट एवं 56 सीटें मिल सकती हैं. जैसे ही कयासबाजी के जरिये राजेवाल का नाम आम आदमी पार्टी के साथ जोड़ा गया, वैसे ही एक बार संयुक्त किसान मोर्चे में बहस पहले से ज्यादा गर्म हो गई.

हालांकि राजेवाल ने अपनी तरफ से इसका खंडन कर दिया है, लेकिन बहस है कि थमने का नाम नहीं ले रही है. यह एक आम जानकारी है कि मोर्चे के भीतर तरह-तरह की शक्तियां सक्रिय हैं. इनमें मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी गुटों के लोग भी हैं. चुनाव लड़ने के बारे में इस तरह की शक्तियों के बीच भी मतभेद हैं. 

लिबरेशन गुट चुनाव लड़ने के पक्ष में है, और बिहार समेत देश में जहां भी मौका होता है वह चुनाव लड़ता है. लेकिन नागीरेड्डी गुट (जिसका शायद  पंजाब में सबसे ज्यादा प्रभाव है) इस मामले में अलग राय रखता है. कुल मिलाकर स्थिति अनिश्चित है.

पंजाब के कुछ एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवियों से चुनाव के बारे में हुई अनौपचारिक चर्चा से भी यही बात निकल कर आती है कि पंजाब के चुनाव की दिशा काफी-कुछ किसान आंदोलनकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली रणनीति पर निर्भर है. इस अनौपचारिक चर्चा की खास बात यह थी कि एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवियों की चुनाव-समीक्षा एक तरह की अनिश्चितता में फंसी हुई मिली. शायद इसका बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस पार्टी की अंतर्कलह के कारण उसकी संभावनाओं में गिरावट आई है. 

आम आदमी पार्टी की संभावनाएं पहले के मुकाबले उज्ज्वल हुई हैं. उधर अमरिंदर सिंह और भारतीय जनता पार्टी के गठजोड़ ने एक और ध्रुव को मंच पर पेश कर दिया है. अमरिंदर सिंह का जाट सिखों में कुछ प्रभाव है और भाजपा शहर के हिंदू व्यापारियों की पार्टी मानी जाती है. ये हिंदू मतदाता नरेंद्र मोदी को बहुत पसंद करते हैं, बावजूद इसके कि पंजाब में कुल मिला कर प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे ही है. 

एक राय यह भी थी कि भाजपा चालाकी-भरे चुनावी गणित का इस्तेमाल करके कई जगह वोट-कटवा उम्मीदवार खड़े करवाएगी. यह भी बताया गया कि भाजपा की मदद से दो छोटी-छोटी पार्टियां खड़ी हो गई हैं. फिर अकाली दल तो है ही. उसकी ताकत को कम करके आंकना एक भूल होगी. 

आखिरकार अकाली दल पंजाब की सर्वाधिक संगठित और देहात के जमीनी स्तर तक  पहुंच रखने वाली पार्टी है. यह सही है कि अकाली दल लोकप्रियता के लिहाज से काफी पिछड़ता हुआ दिख रहा है, लेकिन एक अनिश्चित सी स्थिति में अकाली दल भी सम्मानजनक सीटें लेकर दोबारा उभर सकता है.

पंजाब में आम आदमी पार्टी की दावेदारी इस समय सबसे ज्यादा मजबूत लग रही है. लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में किसे पेश करे. अगर आम आदमी पार्टी एक अच्छा सिख चेहरा मतदाताओं के सामने पेश करे तो वह  पंजाब की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में एक दिल्ली केंद्रित पार्टी होने की छवि से निकल सकती है.

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