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बहुत देर से दर पे आंखें लगी थीं…: जाति जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण से निकलेगी नई राह

By विजय दर्डा | Updated: May 5, 2025 07:02 IST

मोदी सरकार के इस निर्णय से मैं भी पूरी तरह सहमत हूं लेकिन इस बात का ध्यान रखना भी बहुत जरूरी होगा कि यह मसला अत्यंत संवेदनशील है और किसी भी रूप में किसी को भी इसका राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर नहीं मिलना चाहिए.

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हम जाति और वर्ण व्यवस्था की चाहे जितनी आलोचना कर लें, सामाजिक हकीकत यही है कि आज भी हमारा समाज इनमें ही उलझा पड़ा है. जाति के नाम पर समाज आज भी बंटा हुआ नजर आता है. ऐसे में यह मांग उठती रही है कि जाति के आधार पर जनगणना होनी चाहिए ताकि वंचितों का समग्र डाटा मिल सके. आखिर हमें जब डाटा मिलेगा तभी तो हम यह जान पाएंगे कि किस जाति के कितने लोग हैं और उनके जीवन में कैसा परिवर्तन आया है और क्या जरूरतें हैं ? देर से ही सही मोदी सरकार ने ऐतिहासिक फैसला ले लिया है कि अगली जनगणना जाति के आधार पर होगी. 

मोदी सरकार के इस निर्णय से मैं भी पूरी तरह सहमत हूं लेकिन इस बात का ध्यान रखना भी बहुत जरूरी होगा कि यह मसला अत्यंत संवेदनशील है और किसी भी रूप में किसी को भी इसका राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर नहीं मिलना चाहिए. हालांकि सत्य यह भी है कि जब आंकड़े आ जाएंगे तो लाभ उठाने की कोशिशें भी होंगी ही. बिहार और कर्नाटक में जो सर्वे हुए उसे लेकर जो राजनीतिक सवाल उठते रहे, उससे स्थिति को समझा जा सकता है. लेकिन जो वक्त की जरूरत है, उससे मुंह तो नहीं मोड़ा जा सकता ! 

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमना जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति ने बिल्कुल सही कहा है कि  जाति और जाति आधारित भेदभाव हमारे समाज की एक कठोर वास्तविकता है. ⁠बहुत लंबे समय तक हम इसे नकारते रहे लेकिन अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर काम करें. भारत विविधताओं से भरा है. जब तक हम प्रामाणिक डाटा एकत्र नहीं करते, तब तक बड़ी तस्वीर को देखना और अपने लोगों और अपने राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति के लिए एक वैज्ञानिक रणनीति तैयार करना संभव नहीं है. 

उम्मीद की जानी चाहिए कि यह कदम सामाजिक-आर्थिक विभाजन को पाटने और समाज के सभी वर्गों को सत्ता और समृद्धि में उचित हिस्सा देने में काफी मददगार साबित होगा.जाति जनगणना की मांग लंबे समय से की जाती रही है. बल्कि यूं कहें कि क्षेत्रीय दलों के विकास में जाति ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बहुत सी जातियों को स्वाभाविक रूप से यह महसूस होता रहा है कि उनकी संख्या के अनुरूप उन्हें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक भागीदारी नहीं मिल रही है. और ये काफी हद तक सही भी है. 

यही कारण है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को पूरी ताकत से उठाया लेकिन अब तक की सभी केंद्र सरकारें इससे बचती रहीं क्योंकि उन्हें इस बात का डर सता रहा था कि कहीं सामाजिक विभाजन की स्थिति न बन जाए! 1979 में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया ताकि पिछड़ा वर्ग को यथोचित आरक्षण दिया जा सके लेकिन उस प्रावधान के खिलाफ आंदोलन हुआ और जातिगत जनगणना का मुद्दा सीधे-सीधे आरक्षण से जुड़ गया. 

जातिगत जनगणना के जो विश्लेषणात्मक फायदे होने हैं, वह मुद्दा पीछे रह गया और किसी सरकार ने फिर हिम्मत नहीं दिखाई. तर्क यह दिया जाता रहा कि एक ओर तो हमारा संविधान सबके लिए समान अवसर की बात करता है और हम जाति तथा वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो फिर जाति जनगणना कराना उचित कैसे हो सकता है? डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था कि जातिपांति का भेदभाव हमारे समाज के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है. इसे खत्म करने के लिए अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना जरूरी है. 

हालांकि भारत के लिए जातीय जनगणना का इतिहास बड़ा पुराना है. ब्रिटिश शासन काल में 1872 में पहली बार जनगणना में यह जानने की कोशिश की गई कि भारत में किस जाति के कितने लोग रहते हैं. अंग्रेजों ने जिस कारण से भी जातिगत जनगणना कराई हो, पहली बार यह तो पता चला कि किस जाति के कितने लोग हैं! जातिगत जनगणना का यह सिलसिला 10 वर्षों के अंतराल पर 1931 तक चलता रहा. 

आबादी के बाद 1951 में जो जनगणना हुई, उसमे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बारे में तो जानने की कोशिश की गई लेकिन पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के लोगों की संख्या अलग-अलग कितनी है, इसका आंकड़ा इकट्ठा नहीं किया गया. जातिगत जनगणना का मामला जब भी सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो बात यहां आकर रुक जाती थी कि संविधान जाति के आधार पर जनगणना की इजाजत नहीं देता. 2010 में बहुत बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई और तत्कालीन कांग्रेस सरकार इसके लिए राजी भी हो गई. 2011 में सामाजिक और  आर्थिक संदर्भ में जातिगत जनगणना हुई लेकिन उसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं हुए. जब आंकड़े सार्वजनिक न हों तो विश्लेषण आखिर कैसे होगा. 2024 सितंबर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जब ये कहा कि जाति जनगणना को लेकर उसे कोई आपत्ति नहीं है तो भाजपा का भी रुख समर्थन में आया. 

संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर का ये कहना सही लगता है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े नीतिगत योजना बनाने में सहायक होने चाहिए. यह सुनिश्चित हो कि इसका इस्तेमाल चुनावी उद्देश्यों के लिए न हो. चलिए हम सब भी यही उम्मीद करते हैं. जातिगत जनगणना समयबद्ध तरीके से हो. मैं ये भी चाहता हूं कि जिस उद्देश्य के साथ जातिगत जनगणना करने का प्रस्ताव है, उस उद्देश्य से वो वर्ग लाभान्वित हों जिन्हें अब तक विकास के लाभ नहीं मिले हैं. 

यह तो समय ही बताएगा  कि जातिगत जनगणना से सबको न्याय मिलेगा या नहीं मिलेगा. लेकिन मेरा सुझाव है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की एक अलग श्रेणी जनगणना में निर्धारित की जाए ताकि सभी वर्गों के लोगों को फायदा हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देते हैं कि उन्होंने यह साहसिक कदम उठाया. बधाई राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव को भी जो जातिगत जनगणना के समर्थ में दृढ़ता से खड़े रहे.

टॅग्स :जाति जनगणनाजातिभारतCenter
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