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अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: 40 दिन की मोहलत पर एक सरकार

By Amitabh Shrivastava | Updated: September 15, 2023 10:00 IST

वर्ष 2014 में नई सरकार आने के बाद वर्ष 2017 में फिर एक न्यायमूर्ति एस.बी. म्हसे के नेतृत्व में आयोग बना, लेकिन उनके निधन के बाद न्यायमूर्ति एमजी गायकवाड़ की नियुक्ति हुई.

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ठळक मुद्देसंविधान के अनुच्छेद 16 के तहत अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया गया है.उच्च शिक्षा संस्थानों में मराठा समुदाय का अधिक प्रतिनिधित्व नहीं है.नौकरियों और उद्योग के क्षेत्र में भी मराठा समुदाय की सीमित संख्या है.

जालना जिले की अंबड़ तहसील के अंतरवाड़ी सराटी में मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे पाटिल का आमरण अनशन गुरुवार को समाप्त हो गया. 

मंगलवार रात को संवाद, बुधवार शाम कोशिश और गुरुवार सुबह सफलता से पहले 16 दिन तक महाराष्ट्र सरकार चैन से नहीं बैठ पा रही थी. यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री और एक उपमुख्यमंत्री मराठा होने के बावजूद सरकार को न संकट का समाधान आसानी से मिल रहा था और न वह कुछ कहने की स्थिति में थी. 

अलबत्ता राज्य की मजबूत सरकार को एक दुबले-पतले ग्रामीण से निपटने में पूरे मंत्रिमंडल की ताकत लगाने पर मजबूर होना पड़ रहा था. महाराष्ट्र के अतीत में देखा जाए तो मराठा आरक्षण का मुद्दा कभी नया नहीं रहा. अस्सी के दशक के आरंभ में माथाडी कामगार नेता अन्नासाहब पाटिल ने सबसे पहले इस मामले पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया. 

22 मार्च 1982 को अन्नासाहब पाटिल ने मुंबई में 11 अन्य मांगों के साथ मराठा आरक्षण के लिए पहला मार्च निकाला. उस दौरान बाबासाहब भोसले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने सुनवाई कर आरक्षण के लिए सहमति जताई, लेकिन सरकार गिर जाने से बात आगे नहीं बढ़ी. 

बाद में कई आयोग और समिति गठित किए गए. वर्ष 1995 में पहले न्यायमूर्ति खत्री आयोग, फिर आरएम बापट आयोग और वर्ष 2013 में पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता में समिति बनी. 

समिति ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को अपनी सकारात्मक रिपोर्ट सौंपी, जिसे स्वीकार कर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए एक विशेष प्रवर्ग तैयार किया गया. वर्ष 2014 में आरक्षण की घोषणा होने के तत्काल बाद उसे उच्च न्यायालय में चुनौती मिल गई. बाद में आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों ने स्थगित कर दिया. 

वर्ष 2014 में नई सरकार आने के बाद वर्ष 2017 में फिर एक न्यायमूर्ति एस.बी. म्हसे के नेतृत्व में आयोग बना, लेकिन उनके निधन के बाद न्यायमूर्ति एमजी गायकवाड़ की नियुक्ति हुई. वर्ष 2018 में रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपी गई और उसी साल विधानसभा में उसे स्वीकार भी कर लिया गया. बाद में उच्च न्यायालय में चुनौती मिलने पर गायकवाड़ आयोग की सिफारिशों को कुछ परिवर्तन के साथ सहमति मिल गई. 

किंतु आरक्षण को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिली तो वह वहां नहीं टिक सका और निरस्त हो गया. करीब चालीस साल से अधिक संघर्ष जो कई सरकारों, आयोगों और अदालत से सहमति पाकर देश की सर्वोच्च अदालत में पहुंचा तो अंतिम मुकाम पर राज्य सरकार अदालत में अपना पक्ष रखने में कमजोर साबित हुई. 

कुल जमा वर्ष 2018 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा कानून बनाकर मराठा समुदाय को दिए 13 प्रतिशत आरक्षण पर मई 2021 में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच ने रोक लगा दी. साथ ही कहा कि आरक्षण को लेकर 50 प्रतिशत की सीमा को नहीं तोड़ा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1992 में आरक्षण की सीमा को अधिकतम 50 फीसदी तक सीमित कर दिया था.

आंकड़ों के हिसाब से मराठा समुदाय राज्य की कुल आबादी का करीब 30 फीसदी है. हालांकि मराठाओं का एक तबका ऐसा भी है जो आर्थिक रूप से संपन्न है. उसके पास जमीन और राज्य की कृषि अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण है. राजनीति में भी दबदबा है. इस लिहाज से एक सीमित दायरे को छोड़ दिया जाए तो वृहद्‌ स्तर पर समुदाय सामाजिक और आर्थिक दोनों रूप से काफी पिछड़ा है. 

खासकर उच्च शिक्षा संस्थानों में मराठा समुदाय का अधिक प्रतिनिधित्व नहीं है. नौकरियों और उद्योग के क्षेत्र में भी मराठा समुदाय की सीमित संख्या है. साल 2018 में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि महाराष्ट्र में करीब 37.28 फीसदी मराठा गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. इस समुदाय के 76.86 फीसदी परिवार कृषि और कृषि श्रम पर निर्भर हैं. 

गौर करने लायक यह है कि रिपोर्ट में वर्ष 2013 से 2018 तक 23.56 फीसदी यानी करीब 2152 मराठा समुदाय के किसानों की आत्महत्या की बात कही गई है. इसके पीछे मुख्य कारण कर्ज और फसल की बर्बादी थी.

ताजा हालात को देखते हुए ही मराठा समुदाय के लोगों की नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों की तरह आरक्षण देने की मांग है. मराठा मानते हैं कि उनके बीच एक छोटा समूह समाज में ऊंची पैठ रखता है, लेकिन बाकी लोग गरीबी में जीते हैं. वहीं उच्चतम न्यायालय मराठा समुदाय को पिछड़ा मानने से इंकार कर चुका है. उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा है कि मराठाओं को आरक्षण लागू करने की जरूरत नहीं है. 

संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया गया है. यानी उन लोगों के लिए सीटें आरक्षित रखी गई हैं, जो सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर पिछड़ी हुई हैं. अब 29 अगस्त से सुलगे आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे निजाम काल के राजस्व रिकॉर्ड की जांच कर उन लोगों को कुनबी के रूप में मान्यता देने की मांग कर रहे हैं, जो पहले कुनबी के रूप में पंजीकृत थे. 

इन्हें विदर्भ और खानदेश में आरक्षण मिलता है, लेकिन राज्य के अन्य भाग विशेष रूप से मराठवाड़ा में आरक्षण नहीं मिलता है. सरकार ने भी आंदोलन की गंभीरता को देखते हुए सेवानिवृत्त न्यायाधीश संदीप शिंदे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है. 

समिति राजस्व, शैक्षिक और संबंधित रिकॉर्ड की जांच करेगी और मांग के अनुसार निजाम युग के ‘कुनबी’ रिकॉर्ड वाले मराठा समुदाय को ‘कुनबी’ प्रमाण-पत्र जारी करने की प्रक्रिया निर्धारित करेगी और ऐसे मामलों की वैधानिक और प्रशासनिक जांच करेगी. 

समिति एक माह में रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंपेगी. इसके अलावा राजस्व विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली पूर्ववर्ती समिति इस समिति को पूरक जानकारी उपलब्ध कराने का भी काम करेगी.

समूचे परिदृश्य में राज्य सरकार चालीस दिन की मोहलत लेकर चालीस साल से अधिक पुरानी मांग को पूरा करने का सामर्थ्य दिखा रही है. आंदोलन के 16 दिनों में उसे जिस तरह की मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उसे देख कर यह नहीं लग रहा है कि परेशानियां इतनी जल्दी घट जाएंगी. खास तौर पर जब मराठा आरक्षण आंदोलन अपनी लड़ाई काफी समझ-बूझ और व्यापक तरीके से लड़ रहा है. 

वहीं सरकार तो एक वीडियो क्लिपिंग से विवादों में घिर जाती है और मुख्यमंत्री का दौरा तक निरस्त करना पड़ता है. ऐसे में सरकार का एक तरफ मुकाबला आंदोलन से है तो दूसरी तरफ उन लोगों से भी है, जिनको तोड़कर वर्तमान सरकार मजबूत हुई है. लिहाजा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के शब्दों में ‘फेविकॉल के जोड़’ को वास्तविकता में भी अटूट दिखाना होगा. केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस में कह देने से काम नहीं चलेगा.

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