शशि थरूर
शक्तियों में जरा सा भी बदलाव संतुलन को अस्थिर कर सकता है. इसलिए भारत को सतर्क और दृढ़ रहना होगा. उसे किसी एक शक्ति के इर्द-गिर्द घूमने के प्रलोभन से बच कर अपनी दिशा को प्रतिबिंबित करने वाला मार्ग बनाना होगा. एक पूर्व विदेश सचिव के हालिया संदेश में एक अद्भुत रूपक दिया गया था: उन्होंने सुझाव दिया कि भारत शायद एक लैग्रेंज बिंदु पर है. चूंकि मैं विज्ञान में बहुत ध्यान देने वाला छात्र नहीं था, इसलिए मुझे इस शब्द को खोजना पड़ा. लैग्रेंज बिंदु अंतरिक्ष में वे पांच स्थितियां हैं जहां दो बड़े परिक्रमा करने वाले पिंडों मान लीजिए, सूर्य और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल संतुलित होते हैं.
यह संतुलन एक छोटे पिंड, जैसे अंतरिक्ष यान, को दोनों के बीच स्थिर रहने की अनुमति देता है, और उसे अपनी जगह पर बने रहने के लिए न्यूनतम ईंधन की आवश्यकता होती है. यह भारत की वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति के लिए एक आकर्षक तस्वीर है. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की जटिल और अक्सर उथल-पुथल भरी दुनिया में, चीन और अमेरिका के बीच के रिश्ते जितने जटिल और महत्वपूर्ण रिश्ते कम ही हैं.
और भारत, जो इन दो महाशक्तियों - एक अप्रत्याशित और लेन-देन करने वाले अमेरिका और एक अति आक्रामक चीन - के गुरुत्वाकर्षण के बीच फंसा हुआ है, को ऐसा रास्ता अपनाना होगा जो उसकी स्वायत्तता को सुरक्षित रखे, उसके हितों को आगे बढ़ाए और किसी भी कक्षा के बहुत करीब आने से बचाए. हाल के महीनों में यह चुनौती और भी विकट हो गई है.
भारत के प्रति वर्तमान अमेरिकी प्रशासन का दृष्टिकोण न केवल भ्रामक है, बल्कि विनाशकारी भी है. इससे उस साझेदारी के टूटने का खतरा है जिसे तीन दशकों में सावधानीपूर्वक बनाया गया है और जिसे वाशिंगटन में दोनों दलों का गहरा समर्थन प्राप्त था. जहां अमेरिका की रणनीति कभी चीन का मुकाबला करने की भू-राजनीतिक अनिवार्यता पर आधारित थी,
वहीं नई ट्रम्पवादी लेन-देनवादी सोच यह समझने में नाकाम है कि भारत किसी और की रणनीतिक योजना में कनिष्ठ साझेदार नहीं है. वह अपने आप में एक शक्ति है - अपनी महत्वाकांक्षाओं, बाधाओं और 200 वर्षों के उपनिवेशवाद से तीक्ष्ण हुई अपनी स्वतंत्रता और रणनीतिक स्वायत्तता की रक्षा के लिए एक प्रबल प्रतिबद्धता के साथ.
यह मानना कि भारत को अमेरिकी साझेदारी की इतनी जरूरत है कि वह ट्रम्प की कोई भी शर्त मान लेगा, एक भ्रांति है. भारत की विदेश नीति लंबे समय से बहुध्रुवीयता के सिद्धांत पर आधारित रही है - यह विश्वास कि किसी एक शक्ति को वैश्विक व्यवस्था पर हावी नहीं होना चाहिए, और भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए कई शक्तियों के साथ जुड़ना चाहिए.
यह सिद्धांत न केवल क्वाड में भारत की भागीदारी और यूरोप व जापान के साथ उसके गहरे होते संबंधों, बल्कि चीन के साथ उसके हालिया मेल-मिलाप की भी व्याख्या करता है. नई दिल्ली में इस खेल का नाम ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ है. हालांकि अमेरिकी प्रशासन और पश्चिमी मीडिया के कई लोग चीन-भारत संबंधों में आई इस नरमी का श्रेय अमेरिकी टैरिफ दबाव को दे रहे हैं,
लेकिन इस संकीर्ण दृष्टिकोण से व्यापक तस्वीर नजरअंदाज हो जाती है. सीमा पर तनाव कम करने और नई दिल्ली और बीजिंग के बीच नए सिरे से आर्थिक सहयोग की कोशिशें महीनों से चुपचाप चल रही हैं. यह भारत द्वारा चीनी प्रभुत्व के आगे झुकने का संकेत नहीं है. यह इस बात की व्यावहारिक मान्यता है कि स्थिरता और आर्थिक जुड़ाव दोनों देशों के हितों की पूर्ति करते हैं.
यह इसका भी संकेत है कि चीन के विरुद्ध भारत एक विशिष्ट और संभावित रूप से दमघोंटू गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर रहा है. चीन के साथ एक पूर्वानुमानित और स्थिर संबंध की खोज, जो आर्थिक सहयोग में निहित है, कमजोरी का संकेत नहीं है. वर्तमान अमेरिकी दृष्टिकोण के विपरीत, जिसकी विशेषता अप्रत्याशित शुल्क और रोजाना मौखिक हमले रहे हैं,
चीन के साथ भारत का जुड़ाव महीनों की शांत, पर्दे के पीछे की कूटनीति का परिणाम है. यह एक ऐसा कदम है जो भारतीय जनता के साथ प्रतिध्वनित होता है, जो इसे अपने सबसे जटिल संबंधों को संभालने का एक समझदार तरीका मानता है. बेशक, चीन के साथ रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं. सीमा पर अभी भी तनाव बना हुआ है और रणनीतिक अविश्वास गहरा है.
लेकिन भारत का दृष्टिकोण बेतहाशा तनाव बढ़ाने का नहीं है, न ही अपनी चीन नीति को वाशिंगटन को सौंपने का. उसका लक्ष्य है बातचीत और सहयोग के रास्ते खुले रखते हुए, बातचीत करना, रोकना और प्रतिस्पर्धा करना. यह तुष्टिकरण नहीं, यथार्थवाद है. साथ ही, भारत को अमेरिका के साथ अपनी साझेदारी के दीर्घकालिक महत्व को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.
हाल के तनावों के बावजूद, अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और शिक्षा में एक महत्वपूर्ण साझेदार और महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश का एक प्रमुख स्रोत बना हुआ है. दोनों देशों ने रणनीतिक सहयोग का एक मजबूत ढांचा तैयार किया है - जिसमें रक्षा अंतर-संचालन, आतंकवाद-निरोध, खुफिया जानकारी साझा करना और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा शामिल है.
यह साझेदारी सुविधा का नहीं, बल्कि साथ मिलकर आगे बढ़ने का परिणाम है. दोनों देश लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता, एशिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने में रुचि और नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने की इच्छा साझा करते हैं. ये साझा हित किसी भी एक सरकार के कार्यकाल से ज्यादा समय तक चलेंगे.
लेकिन इन्हें पोषित करना चाहिए, न कि हल्के में लेना चाहिए. तो, भारत के सामने चुनौती लैग्रेंज बिंदु पर बने रहने की है - स्थिर खड़े रहकर नहीं, बल्कि संतुलन बनाए रखकर. सामरिक स्वायत्तता का मतलब समान दूरी नहीं, बल्कि स्पष्टता है. इसका मतलब है संघर्ष रोकने के लिए चीन से बातचीत करना, लेकिन साझेदारी के भ्रम के बिना.
इसका मतलब है वाशिंगटन के साथ मजबूती से बातचीत करना, लेकिन सामरिक असहमतियों को संरचनात्मक संरेखण से भटकने नहीं देना. इसका मतलब है गठबंधन बनाना, निर्भरता नहीं. लैग्रेंज बिंदु का रूपक सटीक है. यह संतुलन का स्थान है, लेकिन साथ ही भेद्यता का भी.
शक्तियों में जरा सा भी बदलाव संतुलन को अस्थिर कर सकता है. इसलिए भारत को सतर्क, अनुकूलनशील और दृढ़ रहना होगा. उसे किसी एक शक्ति के इर्द-गिर्द घूमने के प्रलोभन से बच कर अपनी दिशा को प्रतिबिंबित करने वाला मार्ग बनाना होगा.