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हाथी और ड्रैगन के डांस की कितनी दिख रही हैं संभावनाएं?, चीन हमेशा दोस्ती के बाद पीठ में छुरा घोंपने का काम?

By रहीस सिंह | Updated: September 4, 2025 05:03 IST

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए तियानजिन पहुंचने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान पहुंचे और प्रधानमंत्री शिगेरू इशिबा के साथ 15 वीं वार्षिक शिखर बैठक में शामिल हुए.

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ठळक मुद्देदेशों के बीच 2014 में स्थापित ‘विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी’ को नई ऊंचाइयों पर ले जाना.शंघाई शिखर सम्मेलन के दौरान भारत-चीन द्विपक्षीय बैठक में सीमाओं पर तनाव को लेकर कोई समाधान निकलेगा. एकजुटता और दोस्ती का प्रदर्शन ट्रम्प के ‘टैरिफ वॉर’ के विरुद्ध विवशता की साझेदारी है अथवा इससे आगे कुछ और?

नई दिल्ली-टोक्यो और बीजिंग वाया तियानजिन के बीच कम्पैटिबिलिटी से कंफर्टेबिलिटी तक के जो रिश्ते बनते दिख रहे हैं, वे शायद समय की मांग हैं. हां नई दिल्ली और बीजिंग के बीच रिश्तों में आ रही ताजगी में कितनी स्वाभाविकता और पोटेंशियल है और कितनी अस्वाभाविकता, यह अध्ययन का विषय है.

इतिहास इसे स्वाभाविक मान पाने में अवश्य ही गुरेज करेगा क्योंकि चीन हमेशा दोस्ती के बाद पीठ में छुरा घोंपने का काम करता रहा है. शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए तियानजिन पहुंचने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान पहुंचे और प्रधानमंत्री शिगेरू इशिबा के साथ 15 वीं वार्षिक शिखर बैठक में शामिल हुए.

इस बैठक का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच 2014 में स्थापित ‘विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी’ को नई ऊंचाइयों पर ले जाना और 2008 की सुरक्षा साझेदारी को अपडेट करना था.फिलहाल भारत-जापान बैठक को भले ही द्विपक्षीय रिश्तों तक सीमित कर देखा जाए लेकिन इसके निहितार्थ भू-राजनैतिक थे.

कारण यह कि नई दिल्ली-टोक्यो कनेक्ट उस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी हो गया है जब अमेरिका भारत पर भारी टैरिफ लगाकर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर रहा हो. इसी टैरिफ वॉर के प्रकाश में प्रधानमंत्री की तियानजिन यात्रा सम्पन्न हुई जिसे नई दिल्ली-बीजिंग सम्बंधों के ‘रिसेट’ अथवा कंफर्टेबिलिटी के लिए प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है.

हालांकि तियानजिन में प्रधानमंत्री मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तस्वीरों में मित्रता और अन्योन्याश्रितता का जो अक्स दिख रहा था वह मोदी एवं जिनपिंग की तस्वीरों में कहीं नजर नहीं आया. वैसे शी जिनपिंग की तरफ से आपसी तनाव को कम करने के लिए किसी ठोस कदम का उल्लेख भी नहीं किया गया, आश्वासन तो दूर की बात है.

यद्यपि अगस्त के तीसरे सप्ताह में चीनी विदेश मंत्री वांग यी जब भारत की यात्रा पर आए थे और आपसी रिश्तों में बेहतरी के लिए 10 सूत्रों पर सहमति बनी थी तब भारत के अंदर एक उम्मीद जगी थी कि शंघाई शिखर सम्मेलन के दौरान भारत-चीन द्विपक्षीय बैठक में सीमाओं पर तनाव को लेकर कोई समाधान निकलेगा.

मसलन शी जिनपिंग लद्दाख सीमा पर तैनात पचास हजार से अधिक सैनिकों को पीछे ले जाने या हटाने की घोषणा करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चीन अभी भी चुप्पी ही साधे रहा.  ऐसे में सवाल उठता है कि तियानजिन में एकजुटता और दोस्ती का प्रदर्शन ट्रम्प के ‘टैरिफ वॉर’ के विरुद्ध विवशता की साझेदारी है अथवा इससे आगे कुछ और?

सवाल तो यह भी है कि क्या भारत के अमेरिका व क्वॉड से दूरी बनाए बगैर बीजिंग से स्वाभाविक रिश्तों के लिए आवश्यक बॉन्डिंग बन पाएगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजिंग अब भारत की स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करे? यदि ऐसा होता है तो भारत के लिए सुरक्षित और लाभदायक विकल्प क्या है?

यही सवाल तो चीन से है कि क्या वह भारत को अपने साथ ले चलने के लिए समझौतावादी नजरिया अपनाएगा? क्या वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सुधार, आतंकवाद और न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत के प्रवेश के मामले में भारत का साथ दे पाएगा? क्या चीन ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ पर भारत के नजरिये को स्वीकार कर पाएगा?

क्या वह ‘चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर’ (सीपेक) पर भारत की चिंताओं का समाधान दे पाएगा? संभवतः नहीं.  फिर ‘ड्रैगन और हाथी’ का डांस कैसे संभव है? एक बात और, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) तात्कालिक व दीर्घकालिक रक्षा व सुरक्षा सम्बंधी चुनौतियों से निपटने के उद्देश्य से संयुक्त युद्धाभ्यासों (ज्वाइंट ड्रिल्स) को आयोजित करता है जिसे नाटो ‘वार-गेम’ का हिस्सा मानता है.

भले ही शंघाई सहयोग संगठन इन युद्धाभ्यासों को ‘पीस मिशन’ नाम दे रहा हो. पश्चिमी विशेषज्ञ एससीओ को शीतयुद्धकालीन ‘वारसा पैक्ट’ का उत्तराधिकारी संगठन मानते हैं. ऐसे में भारत इस विरोधाभास से अपने आपको दूर कैसे रख पाएगा? फिलहाल आज की आवश्यकता ‘पॉलिसी ऑफ फारवर्ड’ के साथ-साथ ‘रिबैलेंसिंग’ की है. भारत को अभी इसी के साथ आगे बढ़ना चाहिए.

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