अभिलाष खांडेकर
जलवायु सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सालाना के नियमित आयोजन बन गए हैं. वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो में जब से यह सब शुरू हुआ है, तब से जलवायु पूरी तरह बदल गई है, वैश्विक तापमान बढ़ गया है और जनसंख्या का दबाव स्वच्छ पर्यावरण व बेहतर जीवन के रास्ते में आ खड़ा हुआ है. वर्ष 1995 में बर्लिन में शुरू हुए सम्मेलन से अब तक 30 सम्मेलन हो चुके हैं. लेकिन नतीजा?
बेलेम (ब्राजील) सीओपी-30 विगत 10 नवंबर को इस वादे के साथ शुरू हुआ कि सम्मेलन के दौरान इन सभी उलझनों को सुलझा लिया जाएगा और 198 पार्टियां (देश) एकमात्र पृथ्वी को बचाने का समाधान खोजने के लिए विचार-मंथन करेंगी. 90 के दशक के अंत में जब वैश्विक नेताओं को इन खतरों का एहसास हुआ तो संयुक्त राष्ट्र ने सदस्य देशों को साथ लेकर उन्हें यह समझाया कि अगर कार्बन उत्सर्जन और बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो भविष्य अंधकारमय होगा.
संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि दुनिया को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग किसानों पर भारी असर डालेगी और जल संकट भी पैदा करेगी. इस मुद्दे पर सभी सहमत थे, या यूं कहें, तब ऐसा ही प्रतीत हुआ. लंबे-चौड़े सेमिनारों, उबाऊ सम्मेलनों और कानूनी संधियों के जरिये, टिकाऊ जीवन को बढ़ावा देने के स्थायी समाधान की तलाश नियमित रूप से होती रही है.
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) का मुख्य कार्य विकसित और विकासशील देशों को साथ लेकर वैश्विक तापमान को सीमित करने के तरीकों पर आम सहमति बनाना था और अभी भी है. ऐतिहासिक रूप से, अमीर और ज्यादा औद्योगिक देश ही बड़े उत्सर्जक रहे हैं. कार्बन उत्सर्जन के लिए सिर्फ उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता,
बल्कि उन्हें साथ लिया जाना चाहिए. जैसे-जैसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण के अपने अभियान में आगे बढ़ा, उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनमें विभिन्न जलवायु संबंधी कमजोरियां, राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं का आकार, संबंधित देशों की विकास प्राथमिकताएं और ऐतिहासिक गलतियों को स्वीकार करने में अमीर देशों की अनिच्छा शामिल थीं.
पिछले तीन दशकों में क्योटो (1997), बाली (2007), नई दिल्ली (2008), कोपेनहेगन (2009), कैनकुन (2010), डरबन (2011) और पेरिस (2015) जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु वार्ता बहुत गंभीरता से हुई, जिससे आशा की किरणें दिखाई दीं. अगर क्योटो एक प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करवाने में सफल रहा, जिसने उत्सर्जन में कमी के कानूनी रूप से बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित किए,
तो 2015 का पेरिस समझौता ही था जिसने इस कठिन यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ प्रदान किया; इसने एक नीति बनाने और 198 देशों को एक साथ जोड़ने के प्रयासों को वास्तविक गति प्रदान की. लेकिन जलवायु राजनीति से निपटना नेताओं के लिए इतना आसान नहीं था. पेरिस ने डरबन में आयोजित सीओपी-17 से प्रेरणा लेते हुए भविष्य की दिशा तय की,
जहां एक ऐतिहासिक संधि के लिए आधार तैयार किया गया था, जो हस्ताक्षर करने वाले सभी पक्षों पर लागू थी. पेरिस सम्मेलन जलवायु-राजनीति के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ था जहां राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के सूत्र को मंजूरी मिली. राष्ट्रों को उत्सर्जन कम करने के लिए अपनी कार्ययोजनाएं तय करने और प्रस्तुत करने तथा घरेलू परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करने की स्वतंत्रता दी गई. वर्ष 2015 से, कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने और तापमान पर अंकुश लगाने के लिए 475 से अधिक विषय-आधारित मुद्दों पर पहल शुरू की गई हैं.
लेकिन यह आधा सच है. वर्ष 2017 में डोनाल्ड ट्रम्प के सत्ता में आने के तुरंत बाद, अमेरिका इस संधि से बाहर निकल गया और कई अन्य विकासशील देशों ने भी ऐसा ही किया. पेरिस समझौते के अनुसार, शक्तिशाली धनी देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद के लिए लाखों अमेरिकी डॉलर का योगदान देना था लेकिन अमेरिका मुकर गया.
भू-राजनीति का गंदा चेहरा खुलकर सामने आया, उत्तर और दक्षिण के बीच तीखे मतभेद उभर आए; अमीर और गरीब देश फिर से उभर आए और अपेक्षित उपलब्धियां दर्ज नहीं हो सकीं. जीवाश्म ईंधन लॉबी ने भी अपनी चालें चलीं. जलवायु वित्त के मुद्दे तब भी अनसुलझे रहे. कैनकुन में स्थापित हरित जलवायु कोष (जीएफसी) ने कुछ प्रगति की है, अब दूसरा चक्र चालू है.
जीएफसी विकासशील देशों की सहायता करेगा. फिर भी, वैश्विक नेताओं द्वारा निर्धारित लक्ष्य अभी भी पूरे नहीं हो रहे हैं. नतीजतन, 2024 में धरती का तापमान पहली बार 1.5 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया, जिससे विश्व समुदाय स्तब्ध रह गया, जो इतने सालों से इसे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा था. जाहिर है वे नाकाम रहे हैं.
इस पृष्ठभूमि में, बेलेम सीओपी-30 आयोजित हो रहा है, इसमें अमेरिका अनुपस्थित रहेगा जो दुःखद है. दुनिया जल संकट, मरुस्थलीकरण, जैव विविधता ह्रास, बढ़ते तापमान और निश्चित रूप से सभी प्रकार के प्रदूषण की एक बड़ी चुनौती के मुहाने पर खड़ी है.
हां, भारत ने सरकारी स्तर पर आर्द्रभूमि को सुरक्षित करने, संरक्षित वन क्षेत्रों को बढ़ाने, सौर ऊर्जा क्षमता बढ़ाने और इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने जैसे कई सराहनीय कदम उठाए हैं. लेकिन स्पष्ट रूप से अभी और भी बहुत कुछ करना है. पेेड़ों की यहां बड़े पैमाने पर कटाई, नदियों का सूखना, कोयले का उपयोग और दिल्ली जैसे शहरों में भयानक प्रदूषण जारी है. उधर अमेरिका व धनी देश नहीं सुधर रहे है.
बहुपक्षवाद, निम्न कार्बन प्रक्षेप पथ, राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएं (एनएपी) जैसे अत्यधिक तकनीकी शब्दजाल और भारी-भरकम मुहावरों के बीच उलझे हुए मुद्दों के जवाब ब्राजील में पुनः खोजे जा रहे हैं, जैसा कि पिछले तीन दशकों से निरंतर होता आ रहा है. गिलास अभी भी आधा खाली ही है!