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Pitru Paksha: गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को कैसे मिल जाती है मुक्ति, जानिए यहां

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: September 18, 2022 2:28 PM

पुराणों में बिहार के गया में फल्गु नदी के किनारे किया गया पिंडदान और तर्पण पूर्वजों की मुक्ति और उद्धार के लिए सबसे ज्यादा श्रेयस्कर माना गया है।

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ठळक मुद्देगया में फल्गु नदी के पावन तट पर पिंडदान और श्राद्ध कर्म से पूर्वजों को मुक्ति मिलती है महात्मा बुद्ध को गया में ही फल्गु नदी के पावन तट पर वटवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थीगया में पिंडदान करने से मनुष्यों की गोलोकवासी सात पीढ़ियों का तर्पण और उद्धार हो जाता है

गया: पितृपक्ष में पूरखों का श्राद्ध और तर्पण करने से उन्हें मुक्ति मिलती है। सनातन मान्यता के अनुसार भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष को पितृपक्ष कहा जाता है। पितृपक्ष में काशी और प्रयागराज समेत दक्षिण में कन्याकुमारी तक लगभग 55 स्थानों ऐसे स्थान हैं, जहां शास्त्र वर्णित पिंडदान और श्राद्ध कर्म को उत्तम माना गया है। लेकिन बिहार के गया में फल्गु नदी के किनारे किया गया पिंडदान और तर्पण पूर्वजों की मुक्ति और उद्धार के लिए सबसे ज्यादा श्रेयस्कर माना गया है।

वैसे गयाजी का धार्मिक महत्व से न सिर्फ हिन्दू धर्म में बल्कि बौद्ध धर्म में भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि बौद्ध धर्म की नींव रखने वाले महात्मा बुद्ध को गया में ही फल्गु नदी के पावन तट पर वटवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, इसलिए बौद्ध धर्म में गयाजी का वर्णन बोधगया के तौर पर यानी ज्ञानक्षेत्र को रूप में किया गया है।

वहीं हिंदू धर्म में कहा जाता है कि पितृपक्ष में गयाजी में किये जाने वाले पिंडदान से मनुष्य की गोलोकवासी हो चुकी सात पीढ़ियों का तर्पण और उद्धार हो जाता है। पिंडदान और तर्पण से मुक्त होने वालों में दिवंगत पिता-माता, दादा-दादी, परदादा-परदादी सहित अन्य पुरखे तो हैं ही साथ में मातृपक्ष से भी नाना-नानी, परनाना-परनानी और अन्य में मृत गुरु और आचार्य-पुरोहित भी इसमें शामिल हैं।

लेकिन क्यों पितृपक्ष के समय हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले लाखों-करोड़ों लोग पूर्वजों की मुक्ति के लिए गयाजी में ही पिंडदान करते हैं। आखिर क्यों पितृपक्ष में गयाजी में होने वाले पिंडदान और तर्पण को विशेष स्थान दिया गया है। आखिर क्या है शास्त्रों में इसको किस प्रकार वर्णित किया गया है।  

तो हम आपको बता रहे हैं कि गयाजी में पिंडदान और तर्पण का क्यों पावन माना गया है, क्या आप जानते है की गया को मोक्ष स्थली के तौर पर मान्यता एक राक्षस गयासुर के कारण मिला है?

जी हां, राक्षस गयासुर ने कठिन तपस्या से ब्रह्माजी से यह वरदान हासिल किया था कि उसकी देह देवताओं सदृश्य पवित्र हो जाए और उसके दर्शन मात्र से लोगों के पाप दूर हो जाएं। उसे मृत्युोक या कहें कि यमलोक नहीं जाना पड़ेगा और पापकर्म किया व्यक्त‌ि सीधे व‌िष्‍णुलोक को प्राप्त हो जाएगा। इस वरदान के कारण लोग भयमुक्त होकर पाप आचरण करने लगे और गयासुर के दर्शन और स्पर्शमात्र से मृत्यु के बाद सीधे विष्णुलोक में जाने लगे। इस कारण यमराज सहित देवताओं में भारी चिंता फैल गई।

यमराज ने अपनी व्यथा ब्रह्माजी से बताई। यमराज ने कहा कि प्रभु... अधम गयासुर के कारण अब पापी व्यक्त‌ि भी यमलोक न आकर सीधे बैकुंठ के भागी होने लगे हैं। इसका कोई उपाय क‌ीज‌िए अन्यथा बैकुंठ पृथ्वी पर पाप आचरण करने वाले मनुष्यों से भर जाएगी। यमराज की बात को समझते हुए ब्रह्माजी ने गयासुर को बुलाया और कहा क‌ि मेरे वरदन से तुम परम पव‌ित्र हो चुके हो, देवता एक यज्ञ का आयोजन कर रह हैं और मेरी इच्छा है कि वो तुम्हारी पीठ पर यज्ञवेदी बनाकर इस कार्य को संपन्न करें।

ब्रह्माजी की इच्छा सुनकर गयासुर ने अपना शरीर देवताओं के यज्ञ के लिए समर्पित कर दिया। शस्त्रों में वर्णित गयासुर उसी फल्गु नदी के किनारे अपने शरीर को लेकर लोट गया। पांच कोस में फैले गयासुर के शरीर के नीचे आने स्थान को गयाजी कहा गया। ब्रह्माजी ने गयासुर के समर्पण से प्रभावित होकर उसे फिर आशीर्वाद दिया कि गयाजी में पूर्वजों के प‌िंडदान और श्राद्ध से गोलोकवासी को मुक्त‌ि म‌िलेगी और उनकी आत्मा को भटकना नहीं पड़ेगा क्योंकि गयाजी में स्वयं भगवान विष्णु पितृदेवता के रूप में विराजमान रहते हैं।

सतयुग में स्थापित विष्णुपद मंदिर में 'गदाधर' रूप में विराजमान भगवान विष्णु को मोक्ष प्रदाता कहा जाता है। विष्णुपद का अर्थ है भगवान विष्णु के पैर। विष्णु को इस संसार का सृजनकर्ता कहा जाता है। गयाजी में विष्णु, ब्रह्मा और शिव का मूलरूप वास करता है, इसलिए यहां पर किये जाने वाले पिंडदान और तर्पण को सबसे उत्तम माना जाता है।

पुरातन काल में गयाजी में श्राद्धकर्म के लिए विविध नामों से 360 वेदियां हुआ करती थीं लेकिन जिनमें अब केवल 48 ही शेष बची हैं। फल्गु नदी के किनारे विष्णुपद मंदिर में इन्हीं वेदियों पर अक्षयवट की छांव में पिण्डदान को पुण्यकारी माना जाता है। इसके साथ ही गयाजी में नौकुट, ब्रह्योनी, वैतरणी, मंगलागौरी, सीताकुंड, रामकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, प्रेतशिला और कागबलि में भी पिंडदान किया जाता है।

वायुपुराण में लिखा है कि गयाजी में तर्पण और पिंडदान करके पूर्वज न केवल प्रसन्न हो जाते हैं बल्कि वे पिंडदान करने वालों को आर्शीवाद देते हैं। वायुपुराण के अनुसार पूर्वजों का ऋण उतारने के लिए इससे अच्छी जगह इस संपूर्ण पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस भूमि पर जितने भी तीर्थ हैं, समुद्र और सरोवर है। वे सभी प्रतिदिन एक बार फल्गु तीर्थ में भ्रमण के लिए आते हैं। गयाजी में पिंडदान करने से मनुष्य के जो फल मिलता है उसका वर्णन करोड़ों कल्प में भी नहीं किया जा सकता है।

पुराणों अनुसार ब्रह्मज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरुक्षेत्र में निवास को मुक्ति का साधन माना गया है। गया में श्राद्ध करने से ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण की चोरी सहित पाप संसर्ग जनित कर्मों से मुक्ति के लिए फलदायक माना जाता है।

यही कारण है कि स्वयं भगवान राम भी अपने पिता दशरथ का श्राद्ध और पिंडदान करने माता सीता के साथ अरण्य वन जंगल में आए थे। राम-सीता ने दशरथ का पिंडदान रेत से पवित्र फल्गु जल से किया था, जिसके बाद से यहां रेत से पिंडदान करने का विशेष महत्व माना जाने लगा। वहीं महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध और पिंडदान के बारे में बताया था। महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने न केवल पांडवों बल्कि कौरवों का भी अंतिम संस्कार किया था। इसके बाद युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के आदेश पर गयाजी में जाकर कर्ण समेत सभी मारे गये कौरवों और पांडवों का पिंडदान किया था।

गयाजी मे पितरों की मुक्ति के लिए गया श्राद्ध ,वार्षिक श्राद्ध , तिथि श्राद्ध ,त्रिपिंडी श्राद्ध ,नारायण बलि श्राद्ध कराया जाता है। इसके लिए पुरोहितों द्वारा विष्णुपाद मंदिर में कर्मकांड, पूजनकर्म, महाभिषेक, सहस्त्रनामाभिषेक, अन्यान्य अभिषेक ,रात्रि शृंगार पूजन का विधान है। गयाजी में श्राद्ध-तर्पण का एक दिवसीय, तीन दिवसीय, पांच दिवसीय, सात दिवसीय और सत्रह दिवसीय कर्मकांड होता है। इसके अलावा आकाल मृत्यु प्राप्त होने वाले मनव जीव के उद्धार के लिए भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति, आत्मशांति, नारायण बलि और त्रिपिंडी श्राद्ध भी किया जाता है। 

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