कश्मीरी नेता उमर अब्दुल्ला ने साल 2007 में सैयद अली शाह गिलानी के बारे में कहा था, "वो अपने बच्चों को अच्छे करियर की तालीम देते हैं और गरीब नौजवानों के हाथ में बन्दूक पकड़ाते हैं। कश्मीर में पिछले 17 साल में बहे खून के हर कतरे के लिए वो जिम्मेदार हैं।" करीब 92 साल की लम्बी उम्र जीने वाले गिलानी के जिंदगी का सारांश उमर अब्दुल्ला के इस जुमले में समाहित है।
अजीब विडम्बना है कि गिलानी का तन 92 साल भारत में रहा लेकिन उनका मन सदैव पाकिस्तान में रहा। कश्मीरी नौजवानों को इस्लामी जिहाद के लिए उकसाने वालों में गिलानी सर्वप्रमुख रहे। यही वजह है कि उनकी वफात का मातम इस्लामाबाद में तो मनाया जा रहा है लेकिन दिल्ली में उनके जाने का उतना गम नहीं दिख रहा।
सैयद अली शाह गिलानी की मौत बुधवार रात को हुई। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्विटर पर गिलानी की मौत के प्रति कोई संवेदना नहीं व्यक्त की गयी। वहीं पाकिस्तानी वजीरे आजम इमरान खान ने गिलानी की मौत पर गहरा दुख जताते हुए उन्हें 'कश्मीर का स्वतंत्रता सेनानी' बताया। दोनों मुल्कों के प्रधानमंत्रियों के बयान से जाहिर है कि गिलानी को लेकर दोनों मुल्कों का नजरिया अलग रहा है।
गिलानी ने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत जमाते इस्लामी कश्मीर से की। भारत की आजादी से पहले मौलाना मौदूदी द्वारा स्थापित जमाते इस्लामी एक कट्टरपंथी इस्लामी तंजीम थी जिसका मकसद 'इस्लामी रियासत' कायम करना था। मुस्लिम लीग के 1940 में लाहौर अधिवेशन में ही पहली बार हिन्दुस्तान से अलग पाकिस्तान (मुसलमानों का मुल्क) बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। जमाते इस्लामी की स्थापना सन् 1941 में हुई थी। जमाते इस्लामी मुसलमानों को 'एक मुल्क' की तरह देखती थी।
कुछ विद्वानों के अनुसार के अनुसार जमाते इस्लामी भारत विभाजन के खिलाफ थी लेकिन इसलिए नहीं कि वह हिन्दू-मुस्लिम बराबरी की हिमायती थी बल्कि इसलिए कि उसे लगता था कि बँटवारे के बाद मुसलमानों की ताकत कम हो जाएगी। मौलाना मौदूदी भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये। आजीवन वहीं रहे। भारत विभाजन के बाद जमाते इस्लामी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अलग-अलग स्थानीय शाखाओं में विभाजित हो गयी। लेकिन हर जगह उसका बुनियादी अकीदा एक ही रहा। इस्लामी कट्टरपंथी को वह हर जगह खादपानी देकर सींचती रही। जमाते इस्लामी कश्मीर की विचारधारा भी जम्हूरियत (लोकतंत्र) की पैरोकार नहीं थी बल्कि इस्लामी निजाम की तरफदार थी।
जमाते इस्लामी का असल चरित्र समझना हो तो हमें बांग्लादेश मुक्तिसंग्राम में इसकी भूमिका देखनी चाहिए। जमाते इंस्लामी बांग्लादेश ने सन् 1971 में हुए बांग्लादेश मुक्तिसंग्राम में लोकतंत्र समर्थकों का साथ देने के बजाय दमनकारी पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था। बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की 15 अगस्त 1975 को हत्या कर दी गयी। मुजीब की बेटी शेख हसीना जब साल 2009 में दूसरी बार देश की प्रधानमंत्री बनीं तो अगले ही साल 2010 में उन्होंने 1971 के युद्ध अपराधों की जाँच के लिए एक जाँच समिति का गठन किया। इस जाँच समिति ने जमाते इस्लामी से जुड़े कई प्रमुख इस्लामी नेताओं को मृत्युदण्ड या लम्बे कारावास की सजा सुनायी। बांग्लादेश में जमाते इस्लामी की गतिविधियों से साफ होता है कि इस पार्टी का मकसद अवाम की बेहतरी से ज्यादा मजहब का परचम बुलन्द करने से है।
जमाते इस्लामी पाकिस्तान का चरित्र भी वहाँ लोकतंत्र विरोधी ताकतों को समर्थने देने वाला ही रहा है। हालाँकि भारत में जमाते इस्लामी कश्मीर से निकले नेताओं ने लोकतंत्र में मिलने वाली स्वतंत्रता का लाभ इस्लामी कट्टरपंथ को फैलाने के लिए किया। यही वजह है कि जब पाकिस्तानी पीएम इमरान खान ने गिलानी की मौत पर शोक जताया तो एक पत्रकार ने उन्हें याद दिलाया कि 'गिलानी की मौत उनके अपने घर में अपने बिस्तर में शान्तिपूर्वक हुई है। न कि वो बलोच राष्ट्रवादी नेता 'अकबर शाहबाज खान बुगती' की तरह पहाड़ी खोह में पाकिस्तानी सेना के हाथों मारे गये।"
गिलानी को लेकर पाकिस्तान में जो मातम है वह केवल कट्टरपंथी या मजहबपरस्तों के बीच नहीं है। प्रगतिशील और लोकतंत्र प्रेमी माने जाने वाले पाकिस्तानी भी गिलानी के बड़े हिमायती नजर आ रहे हैं। प्रगतिशील पत्रकार भी इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि गिलानी कश्मीर को इस्लामी रियासत बनाने के पैरोकार थे न कि जम्हूरी निजाम।