आज प्रेमचंद की 141वीं जयंती है। कथा सम्राट का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के लमही गाँव में हुआ था। प्रेमचंद का आधिकारिक नाम धनपत राय था। वो पहले नवाब राय नाम से लिखते थे। जब उनके कहानी संग्रह सोज-ए-वजन को ब्रिटिश शासन ने विद्रोह को बढ़ावा देने वाला मानकर प्रतिबन्धित कर दिया तो उन्होंने प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया। प्रेमचंद आजादी से पहले शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर थे।
1921 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और लेखन और प्रकाशन को अपना पूर्णकालिक पेशा बना लिया। गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवा सदन इत्यादि उपन्यासों समेत उन्होंने करीब ढाई सौ कहानियाँ लिखीं। प्रेमचंद ने हंस, माधुरी और जागर जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। हिन्दी के इस यशस्वी पुत्र ने आठ अक्टूबर 1936 को अंतिम साँस ली। आगे पढ़ें प्रेमचंद के 10 ऐसे अनमोल वचन जो उनकी प्रगतिशील और लोकतांत्रिक सोच को प्रतिबिम्बित करते हैं।
1. "देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिए सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।"
2- ''मैं एक मजदूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।'
3- "किसी कश्ती पर अगर फर्ज़ का मल्लाह न हो तो फिर उसके लिए दरिया में डूब जाने के सिवाय कोई चारा नहीं।"
4- "मासिक वेतन पूर्णमासी का चाँद होता है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है।"
5- "जिस बंदे को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उसके लिए मर्यादा और इज्जत ढोंग है।"
6- "जब किसान के बेटे को गोबर में से बदबू आने लग जाए तो समझ लो कि देश में अकाल पड़ने वाला है।"
7- "'अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है।''
8- "सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है, उसे अपने असली रूप में निकलते हुए शायद लज्जा आती है, इसलिए वो संस्कृति की खाल ओढ़ कर आती है।"
9- लेखक हर आदमी की बात कैसे सोच सकता है? वह तो जी-हुज़ूरी हुई। लेखक उसमें कहाँ रहा। लेखक किसी की परवाह किये बिना ही अपने विचार देगा और हृदय से जनता उन विचारों को लेगी भी। और फिर जनता भेड़ भी तो नहीं है। जिसे माना, उसी के इशारे पर चलती रहे, यह तो अच्छी बात नहीं।
10- "मेरी राय है, जनता स्वयं अपना भला-बुरा निर्णय करे। यहाँ तो लोगों को लीडरी की पड़ी रहती है, तब भला वे कैसे जनता के हित की बात सोचें। हिन्दू-मुसलमान की लड़ाइयों में तो ये अपनी लीडरी चमकाते हैं।"