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कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए प्लाज्मा थेरेपी कोई ‘जादू की छड़ी’ नहीं है: विशेषज्ञ

By भाषा | Updated: May 4, 2020 20:10 IST

दिल्ली में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने कहा कि जहां तक कोरोना वायरस का संबंध है, बहुत कम प्लाज्मा थेरेपी के ट्रायल हुए हैं, और केवल कुछ रोगियों में ही इसके कुछ लाभ देखने को मिले हैं।

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ठळक मुद्देट्रॉमा सेंटर, एम्स के प्रोफेसर राजेश मल्होत्रा ने कहा कि अब तक प्लाज्मा थेरेपी की उपयोगिता का कोई ठोस सबूत नहीं है। इस थेरेपी के नियंत्रित ट्रायल से इसके प्रभाव साबित हो सकते है।

नयी दिल्ली: शीर्ष चिकित्सा विशेषज्ञों ने सोमवार को कहा कि प्लाज्मा थेरेपीकोरोना वायरस से निपटने के लिए कोई ‘‘जादू की छड़ी’’ नहीं है और केवल बड़े पैमाने पर नियंत्रित परीक्षण से उपचार की दृष्टि से इसके प्रभाव का पता चल सकता है। कई राज्य कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार लोगों के इलाज के लिए इस थेरेपी के उपयोग पर विचार कर रहे हैं। इस थेरेपी के तहत कोविड-19 संक्रमण से स्वस्थ हुए एक व्यक्ति के खून से एंटीबॉडी लिये जाते है और उन एंटीबॉडी को कोरोना वायरस से ग्रस्त मरीज में चढ़ाया जाता है ताकि संक्रमण से मुकाबला करने में उसकी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जा सके।

स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले सप्ताह इसके इस्तेमाल को लेकर चेताते हुए कहा था कि कोरोना वायरस के मरीज के इलाज के वास्ते प्लाज्मा थेरेपी अभी प्रायोगिक चरण में है। हालांकि राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और दिल्ली समेत कुछ राज्य सरकारों ने प्लाज्मा थेरेपी से इलाज के लिए अपनी इच्छा जताई थी और केन्द्र ने कोविड-19 के मरीजों की सीमित संख्या में प्लाज्मा थेरेपी का इस्तेमाल करने की कुछ राज्यों को अनुमति दी थी। शीर्ष चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि इसे इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि यह कोविड-19 के इलाज में कोई ‘‘बड़ा अंतर’’ पैदा कर सकता है और इस थेरेपी के नियंत्रित ट्रायल से इसके प्रभाव साबित हो सकते है।

दिल्ली में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने कहा कि जहां तक कोरोना वायरस का संबंध है, बहुत कम प्लाज्मा थेरेपी के ट्रायल हुए हैं, और केवल कुछ रोगियों में ही इसके कुछ लाभ देखने को मिले हैं। गुलेरिया ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘यह केवल उपचार योजना का एक हिस्सा है। इसे व्यक्ति को अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहतर करने में मदद मिलती है क्योंकि प्लाज्मा में मौजूद एंटीबॉडी खून में जाते है और इस वायरस से मुकाबला करने में मदद करने का प्रयास करते है। यह कुछ ऐसा नहीं है, जो नाटकीय बदलाव ला देगा।’’

उन्होंने कहा कि ऐसा कोई अध्ययन नहीं है कि यह ‘‘जादू की छड़ी’’ या इससे कोई नाटकीय बदलाव आ जायेगा लेकिन यह चिकित्सा का एक साधन है। गुलेरिया ने कहा, ‘‘याद रखने के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि हर किसी का प्लाज्मा नहीं दिया जा सकता है, आपको रक्त की जांच भी करनी होगी... क्या यह सुरक्षित है और इसमें पर्याप्त एंटीबॉडी भी हैं। आपके पास एक एंटीबॉडी जांच तंत्र है और एनआईवी (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी), पुणे द्वारा इस बात की जांच की जा रही है कि जो प्लाज्मा आप दे रहे हैं, क्या उसमें पर्याप्त एंटीबॉडी हैं।’’

वसंत कुंज में स्थित फोर्टिस अस्पताल में पल्मोनोलॉजी, एमआईसीयू और निद्रा विकार में निदेशक डॉ विवेक नांगिया ने कहा कि यह थेरेपी प्रायोगिक स्तर पर है लेकिन इसमें उम्मीद की किरण शामिल है क्योंकि इसके पीछे कुछ अनुभव और पहले के अनुभव शामिल हैं जिनका इस्तेमाल सीमित तरीके से सार्स और एच1एन1 महामारी के लिए किया गया था। उन्होंने कहा, ‘‘बड़े स्तर पर नियंत्रित ट्रायल किये जाने बहुत जरूरी हैं और इसके बाद ही हम इसे चिकित्सा का एक मानक बना सकते हैं।’’

रिपोर्टों के अनुसार यहां एक निजी अस्पताल में एक मरीज का पहली बार इस थेरेपी से इलाज किया गया था और स्वस्थ होने के बाद पिछले सप्ताह इस मरीज को अस्पताल से छुट्टी दी गई। हालांकि, महाराष्ट्र में जिस पहले व्यक्ति को यह थेरेपी दी गई उसकी मुंबई के एक अस्पताल में मौत हो गई।

ट्रॉमा सेंटर, एम्स के प्रोफेसर राजेश मल्होत्रा ने कहा कि अब तक प्लाज्मा थेरेपी की उपयोगिता का कोई ठोस सबूत नहीं है। शालीमार बाग में स्थित फोर्टिस अस्पताल के चिकित्सक डॉ. पंकज कुमार ने कहा कि अब तक इस थेरेपी के किये गये ट्रायल बहुत कम हैं और संशय दूर करने के लिए बड़े स्तर पर ट्रायल किये जाने चाहिए। उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘सैद्धांतिक रूप से यह कह सकते हैं कि यह मददगार होना चाहिए क्योंकि हम एक ऐसे व्यक्ति से एंटीबॉडी ले रहे हैं जिसे संक्रमण हुआ है। लेकिन यह अभी भी प्रायोगिक स्तर पर है।’’ 

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