लोकसभा चुनाव के तारीखों की घोषणा हो चुकी है. इसके साथ ही तमाम पार्टियां अपने राजनीतिक समीकरणों को साधने में जुट गई है. उत्तर प्रदेश, लोकसभा चुनाव में हमेशा की तरह इस बार भी सभी पार्टियों के बीच सबसे हॉट टॉपिक है. सपा, बसपा और आरएलडी के महागठबंधन के बाद बीजेपी के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं, तो वहीं पूर्वांचल में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को जिम्मेवारी दी है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दायित्व ज्योतिरादित्य सिंधिया को दिया गया है. केंद्रीय सत्ता में पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश का महत्व भारतीय राजनीति के इतिहास में हमेशा से अमर रहा है.
कैराना संसदीय क्षेत्र का इतिहास
कैराना संसदीय क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सबसे चर्चित सीट रहने वाला है. 1984 के बाद से इस सीट पर कांग्रेस की राजनीतिक फसल कभी नहीं लहलहाई. 1998 में बीजेपी के उम्मीदवार वीरेंदर वर्मा ने इस सीट पर जीत हासिल की थी, लेकिन इसके बाद 2014 तक यह सीट सपा, बसपा और आरएलडी के इर्द-गिर्द ही घूमती रही. 2014 में बीजेपी की तरफ से हुकुम सिंह ने इस सीट पर बड़े अंतर से चुनाव में जीत दर्ज किया था. हुकुम सिंह को 5,65,909 वोट प्राप्त हुए थे तो वहीं समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नाहिद हसन को 3,29,081 वोट मिले थे.
साल 2013 में मुज्ज़फरनगर में बड़े पैमाने पर दंगे हुए जिसमें 62 लोगों की मौत हुई. पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन दंगों के कारण राजनीतिक समीकरण बदल गए. बीजेपी ने क्षेत्र में जाटों के वोट को अपने पक्ष में करने में सफलता पायी और इसका असर 2014 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला. बीजेपी ने मोदी लहर के दम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने सभी 22 सीटें जीत ली थी. मुज्ज़फरनगर दंगों के कारण अजीत सिंह का जाट वोटबैंक उनसे छिटक गया. दंगों के वक्त प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी.
2018 में बदल गया समीकरण
बीजेपी के सांसद हुकुम सिंह के आकस्मिक निधन के बाद कैराना संसदीय क्षेत्र पर उपचुनाव हुए. जिसमें आरएलडी की उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने बीजेपी उम्मीदवार मृगांका सिंह को 44618 वोटों के मत से हराया था. आरएलडी के उम्मीदवार को सपा और बसपा का समर्थन प्राप्त था. कांग्रेस ने भी अपनी तरफ से कोई उम्मीदवार नहीं उतारे थे. बीजेपी बनाम आल की जंग में महागठबंधन जीत गया और बीजेपी के हिंदूत्व की प्रयोगशाला माने जाने वाली सीट उससे छिन गई. इसे विरोधियों ने मोदी लहर के अंत का आह्वान बताया.
2019 में क्या हो सकते हैं समीकरण
गन्ना उत्पादन के लिए प्रसिद्ध पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान प्रदेश की योगी सरकार से नाराज चल रहे हैं. समय पर भुगतान और व्यापक कृषि नीति के अभाव के मुद्दे पर हाल ही में दिल्ली से सटे इलाकों में व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुआ था. मोदी लहर जैसी चीज इस बार नहीं दिख रही है. सपा, बसपा और आरएलडी के साथ आने से वोटों का बंटवारा नहीं होगा और बीजेपी के लिए चुनौतियां और बढ़ेंगी. हाल ही में उत्तर प्रदेश के जाटों ने आरक्षण के मुद्दे पर भी बीजेपी को वोट नहीं देने का एलान किया है. कूल मिला कर बीजेपी के लिए इस बार परिस्थितियां अनुकूल नहीं है.
कैराना एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र
कैराना में मुस्लिमों की जनसँख्या सबसे ज्यादा लगभग 5 लाख 80 हजार है. 2.50 लाख दलित और 1.70 लाख जाट हैं. यह जातीय समीकरण सपा-बसपा-आरएलडी का मजबूत वोटबैंक है. जिसके कारण महागठबंधन का पलड़ा इस सीट पर भारी दिख रहा है. ब्राह्मण 55 हजार और गुजर 1.50 लाख (ओबीसी) हैं. सैनी समुदाय 1 लाख 80 हजार है. बीजेपी इनके सहारे कैराना सीट पर आस लगाये हुए है. बीजेपी ओबीसी की अन्य जातियां और गैर जाटव वोटबैंक को साधने में जुट गई है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 22 सीटें हैं. उत्तर प्रदेश का यह हिस्सा किसान आंदोलन के लिए जाना जाता रहा है. चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि रहा यह क्षेत्र उनके बेटे अजीत सिंह को उस रूप में नहीं अपना सका. इसका कारण लोग खुद चौधरी अजीत सिंह को ही मानते हैं. ख़ुद के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के सपा, बसपा और कांग्रेस का सहारा लेने के कारण अजीत सिंह के राजनीतिक हैसियत में अप्रत्याशित रूप से कमी आई. लोकसभा चुनाव 2019 के लिए अजीत सिंह ने महागठबंधन का दामन थामा है और उन्हें सपा और बसपा की तरफ से 3 सीटें मिली हैं. मथुरा, बागपत और मुज्ज़फरनगर.