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कुमार प्रशांत ने कहा, चुनावी लाभ के लिए गांधी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश हुई, लेकिन पासा पलट गया

By भाषा | Updated: May 19, 2019 14:33 IST

इसे दो तरह से देखना चाहिए। गांधी जी बिल्कुल शुद्ध अर्थों में राजनीतिक पुरुष थे। राजनीति में उनका हर समय हस्तक्षेप रहा इसलिए उन पर राजनीतिक बहस होने में कुछ भी गलत नहीं है। मेरा मानना है कि हमें भाजपा नेता प्रज्ञा सिंह को लेकर उदार होना चाहिए।

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ठळक मुद्देप्रज्ञा जी की हैसियत इसी वजह से है कि उन पर लगे आरोप सही हैं। इसलिए उन्हें उम्मीदवार बनाने का दांव चला गया, जो कि उल्टा पड़ गया। गांधी जी के मूल्यों में विश्वास रखने वालों को मौका मिला है कि वे इस राजनीतिक बहस में गांधी को सही रोशनी में लेकर सामने आएं।

चुनावी राजनीति के केन्द्र में अनायास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आने से शुरू हुई बहस को गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत सकारात्मक दिशा में ले जाने की जरूरत पर बल देते हैं।

साथ ही उनका यह भी मानना है कि बापू को चुनावी लाभ के लिए कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई, लेकिन पासा पलट गया।

पेश हैं गांधी के ‘राजनीतिक इस्तेमाल’ पर कुमार प्रशांत से भाषा के पांच सवाल और उनके जवाब

सवाल : महात्मा गांधी एक बार फिर राजनीति के केंद्र में हैं, इसे आप कैसे देखते हैं ?

जवाब : इसे दो तरह से देखना चाहिए। गांधी जी बिल्कुल शुद्ध अर्थों में राजनीतिक पुरुष थे। राजनीति में उनका हर समय हस्तक्षेप रहा इसलिए उन पर राजनीतिक बहस होने में कुछ भी गलत नहीं है। मेरा मानना है कि हमें भाजपा नेता प्रज्ञा सिंह को लेकर उदार होना चाहिए।

जिस चुनाव में कोई वैचारिक मुद्दा नहीं था, शुद्ध झूठ और दंभ के बल पर लड़े जा रहे उस चुनाव को अनजाने में ही प्रज्ञा सिंह ने वैचारिक बहस में बदल दिया। इसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिये। यह दीगर बात है कि उन्होंने अच्छे उद्देश्य से ऐसा नहीं किया। उनका जो भी उद्देश्य रहा हो, पर चुनाव में गांधी जी बहस का मुद्दा बन गए, यह अच्छी बात रही और हमें इसे सकारात्मक बहस में बदलना चाहिए।

सवाल : क्या ऐसी स्थिति पहले भी कभी देखी गयी, जब चुनावी फायदे के लिए गांधी को सवालों के कटघरे में खड़ा किया गया हो?

जवाब : गांधी जी को कटघरे में खड़ा करने की इसलिए कोशिश हुई, क्योंकि उनको (भाजपा) आशा थी कि ऐसा करने से उन्हें चुनावी लाभ मिल जाएगा। लेकिन पासा पलट गया। प्रज्ञा जी को उम्मीदवार बना कर भी ऐसा ही पासा फेंका गया था।

अव्वल तो प्रज्ञा जी को उम्मीदवार बनाने का कोई कारण नहीं था। अगर प्रज्ञा पर लगे आतंकवाद के आरोप गलत होते तो भी उनकी कोई हैसियत नहीं होती। प्रज्ञा जी की हैसियत इसी वजह से है कि उन पर लगे आरोप सही हैं। इसलिए उन्हें उम्मीदवार बनाने का दांव चला गया, जो कि उल्टा पड़ गया। यह भी सच है कि प्रज्ञा जी अपने विचारों के बारे में इन लोगों (भाजपा नेताओं) से ज्यादा ईमानदार हैं।

इसलिए गांधी जी को चुनावी बहस में लाने की बात से परेशान होने की जरूरत नहीं है। गांधी जी के मूल्यों में विश्वास रखने वालों को मौका मिला है कि वे इस राजनीतिक बहस में गांधी को सही रोशनी में लेकर सामने आएं।

सवाल : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद को बापू का अनुयायी बताते हैं, लेकिन उनके समर्थकों में गांधी जी के विचारों को लेकर नफरत झलकती है। इस विरोधाभास की क्या वजह हो सकती है ?

जवाब : गोडसे ने स्वयं कहा था कि गांधी जी को गोली मारने से पहले उसने उनको झुक कर प्रणाम किया था। क्या आपको नहीं लगता कि प्रधानमंत्री स्वयं भी ऐसा ही काम कर रहे हैं ? उनका जो गांधी प्रेम है वह सिर्फ इसलिए है कि गांधी को किस तरह अपनी क्षुद्र राजनीति के लिए थोड़ा बहुत इस्तेमाल कर लें, इस सावधानी के साथ कि गांधी उन पर हावी न हो जाएं।

 इसके लिये गांधी जी को स्वच्छता का प्रतीक बनाकर उनको स्मार्ट सिटी के किसी सड़क किनारे झाड़ू लेकर खड़ा कर दिया। लेकिन गांधी जी ने कहा था कि स्वच्छता का मतलब सिर्फ सड़क साफ करना नहीं बल्कि दिल और दिमाग भी साफ करना है।

स्पष्ट है कि गांधी के बारे में मोदी जी जरा भी ईमानदार नहीं हैं। जब नेता ही ईमानदार नहीं है तो उसके पीछे चलने वाली बेजुबान भीड़ भी ईमानदार नहीं हो सकती है। इसलिये मैं, इसमें विरोधाभास खोजना लाजिमी नहीं समझता। क्योंकि ये लोग उसी धारा के प्रतिनिधि हैं जिसने गांधी जी को गोली मारी और अब ये लोग अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

सवाल : गांधी के विचारों की नैसर्गिक विरोधी आरएसएस द्वारा पोषित मोदी की गांधी के प्रति श्रद्धा, क्या महज दिखावा मात्र है ?

जवाब : बेशक, गांधी जी के प्रति उनकी श्रद्धा बिल्कुल छद्म है। हर चालाक राजनीतिक ऐसी चीजों का फायदा उठाने की कोशिश करता है, वही कोशिश मोदी जी कर रहे हैं। दुर्भाग्य इतना ही है कि मोदी यह नहीं समझ रहे हैं कि गांधी, पांच साल के खेल नहीं है। उनके पास पांच पीढ़ियों की विरासत है।

ये लोग पांच साल में गांधी को निपटाने की कोशिश में लगे हुये बच्चे हैं, जिनको यह नहीं मालूम कि यह बहुत लंबा मामला है और उतने समय तक तो ये जीवित भी नहीं रह सकते।

सवाल : एक ओर गांधी के विचारों की वैश्विक स्वीकार्यता है, वहीं भारत में आजादी के 70 साल बाद भी गांधी की प्रासंगिकता पर उठते सवालों को आप किस रूप में देखते हैं ?

जवाब : अपने घर में जो लोग होते हैं उनके बारे में बहस ज्यादा होती है। गांधी जी हमारे घर के व्यक्ति हैं। इसलिये यह लाजिमी है कि उनकी स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता पर बहस हो। इससे घबराने की जरूरत नहीं है।

गांधी जी भगवान नहीं है, जिनकी पूजा की जाये। गांधी जी एक राजनैतिक दर्शन के अध्येता और विचारक हैं। इसलिये उन पर बहस होनी चाहिये। जहां तक अन्य देशों की बात है तो, गांधी जी के विचारों की विपरीत दिशा में जाते जाते, पश्चिमी जगत ऐसी जगह पहुंच गया, जहां से उसे आगे का कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा है।

रास्ता खोज रहे लोगों को यह आदमी (गांधी) दिखता है जिसके पास कुछ विकल्प हैं। इन विकल्पों की तरफ जाने का मार्ग मिला और वे उस पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। पर, हम तो खुद ही 70 साल से एक अंधी गली में चल रहे हैं। हमारी भी यही तलाश है कि इस गली से बाहर कैसे निकलें। शायद हम दोनों को गांधी एक ही जगह पर, एक ही समय मिल जायें तो सारी दुनिया अपनी दिशा बदलकर गांधी की तरफ चल देगी। 

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