कोच्चि: केरल उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में कहा है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 हर धर्म के लोगों पर लागू होता है। अदालत ने कहा है कि यह कानून धर्म की परवाह किए बिना सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होता है। न्यायमूर्ति पीवी कुन्हिकृष्णन की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि यह अधिनियम मुस्लिम पर्सनल लॉ का स्थान लेता है जो युवावस्था में लड़की की शादी की अनुमति देता है। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में नागरिकता प्राथमिक है और धर्म गौण है।
टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार एकल पीठ ने हाल ही में 2012 में पलक्कड़ में बाल विवाह मामले में एक आरोपी की याचिका खारिज करते हुए यह निर्देश जारी किया। इस केस में पिता और कथित "पति" सहित आरोपियों ने मामले को रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय का रुख किया था। पीठ ने पहले मामले में एक न्याय मित्र नियुक्त किया था।
यह फैसला ऐसे समय आया है जब भाजपा शासित असम में बाल विवाह को लेकर कई लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जिनमें से ज्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि एक मुस्लिम लड़की जिसने युवावस्था प्राप्त कर ली है, वह शादी कर सकती है और ऐसा संबंध अमान्य नहीं होगा। याचिकाकर्ताओं के अनुसार, मुस्लिम पर्सनल लॉ पर बाल विवाह निषेध अधिनियम लागू नहीं होता। उनका कहना था कि यह यह उनके अधिकारों को कम करता है और सजा निर्धारित करता है।
हालाँकि उच्च न्यायालय ने दलीलों को खारिज कर दिया। इसने अधिनियम की धारा 1(2) का हवाला दिया और कहा कि यह भारत के भीतर और बाहर सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होता है। अदालत ने कहा कि इसका मतलब यह है कि कानून का अधिकार क्षेत्र हर नागरिकों पर लागू होता है, भले ही वे भारत से बाहर रहते हों।
उच्च न्यायालय ने कहा कि आधुनिक समाज में बाल विवाह पर रोक महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णन ने कहा, बाल विवाह बच्चों को उनके बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित करता है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और शोषण से सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है। अदालत ने कहा, "बच्चों को पढ़ने दें। उन्हें यात्रा करने दें, जीवन का आनंद लेने दें और जब वे परिपक्व हो जाएं, तो उन्हें शादी के बारे में फैसला करने दें। आधुनिक समाज में शादी के लिए कोई बाध्यता नहीं हो सकती।"