कर्नाटक के नाटकीय घटनाक्रम के बीच कुछ राजनीतिक जानकार इतिहास का 22 साल पुराना अध्याय पलट रहे हैं जिसके दो मुख्य किरदार वही हैं जो आज बदले हुए रोल में अहम भूमिक निभा रहे हैं। ये दो किरदार हैं, कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद के दावेदार एचडी कुमारस्वामी के पिता एचडी देवगौड़ा और राज्य के मौजूदा राज्यपाल वजुभाई वाला। कांग्रेस ने कुमारस्वामी को सीएम पद के लिए समर्थन देने की घोषणा की है। कांग्रेस और जेडीएस दोनों के मिलाकर कुल 116 विधायक हुए। राज्य में बहुमत के लिए केवल 112 विधायकों की जरूरत होती है। फिर भी राज्यपाल वजुभाई वाला ने 104 सीटों वाली बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया। बीजेपी विधायक दल के नेता बीएस येदियुरप्पा ने गुरुवार (17 मई) को सुबह नौ बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली। अब येदियुरप्पा को 15 दिनों के अंदर विधान सभा में अपना बहुमत साबित करना है।
गोवा, मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी के बजाय चुनाव नतीजे आने के बाद बने गठबंधनों की सरकार बनने के बाद कई राजनीतिक जानकार मान रहे थे कि कांग्रेस और जेडीएस का सरकार बनाने का दावा काफी ठोस है। बीजेपी ने अभी तक साफ नहीं बताया है कि उसके पास बहुमत के लिए जरूरी आठ विधायक कहाँ से आएंगे। साफ है कि केवल दो विधायक ऐसे हैं जो इस या उस तरफ जा सकते हैं। बाकी छह विधायकों का जुगाड़ जेडीएस या कांग्रेस में फूट डाले बिना संभव नहीं है। तो आखिर क्यों राज्यपाल वजुभाई वाला ने जेडीएस और कांग्रेस के दावे पर बीजेपी के दावे को तरजीह दी? अब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वकील से राज्यपाल वजुभाई वाला को येदियुरप्पा द्वारा दिए गये दो पत्र माँगे हैं।
इन राजनीतिक घटनाक्रम के बीच ही मीडिया में देवगौड़ा और वजुभाई वाला के बीच के 22 साल पुराने "किस्मत कनेक्शन" की खबरें आने लगीं। आइए हम आपको बताते हैं 1996 में क्या हुआ था। 1996 में वजुभाई वाला गुजरात की भारतीय जनता पार्टी सरकार में मंत्री थे। मुख्यमंत्री सुरेश मेहता थे। उस समय बीजेपी के नेता शंकर सिंह वाघेला को कांग्रेस ने सीएम पद का सपना दिखाया। वाघेला ने बीजेपी से बगावत कर दी। वाघेला ने दावा किया कि उनके पास 40 विधायकों का समर्थन है। उस समय गुजरात की 182 विधान सभा सीटों में से 121 बीजेपी के पास थीं। वाघेला की बगावत के बाद गुजरात के तत्कालीन राज्यपाल ने सुरेश मेहता से सदन में बहुमत साबित करने के लिए कहा। लेकिन तब भी आज ही की तरह राज्य के साथ ही केंद्र में भी राजनीतिक दाँव-पेंच चालू थे।
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एचडी देवगौड़ा उस समय संयुक्त मोर्चे के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री थे। देवगौड़ा की अनुशंसा पर सुरेश मेहता की सरकार बहुमत परीक्षण के पहले ही बर्खास्त कर दी गयी। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। सुरेश मेहता की सरकार गिरते ही वजुभाई की मंत्री पद की कुर्सी भी चली गयी। 1985 में पहली बार विधायक बने वजुभाई वाला 1990 में पहली बार गुजरात सरकार में मंत्री बने थे। बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी देवगौड़ा के रवैये से काफी आहत हुए थे। वाजपेयी ने कहा था कि देवगौड़ा ने उन्हें धोखा दिया क्योंकि उन्होंने राज्य के मामले में दखल न देने का आश्वासन दिया था।
जिस तरह आज कांग्रेस और जेडीएस कर्नाटक के राजभवन के बाहर अपने विधायकों की परेड करवा रहे हैं उसी तरह उस वक्त बीजेपी ने राष्ट्रपति भवन के सामने अपने विधायकों की परेड करायी थी। लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ वाघेला की नई नवेली पार्टी राष्ट्रीय जनता पार्टी (आरजेपूी) ने अक्टूबर 1996 में गुजरात में सरकार बना ली। हालाँकि वाघेला की सरकार भी ज्यादा दिन नहीं चली और अक्टूबर 1997 में उनकी कुर्सी चली गयी और मार्च 1998 में आरजेपी की सरकार गिर गयी। इसी वाकये को याद करके राजनीतिक जानकार कानाफूसी कर रहे हैं कि क्या देवगौड़ा को 22 साल पहले वजुभाई वाला की कुर्सी खाने की कीमत चुकानी पड़ रही है?
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