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कोरोना और सीमा पर तनावः टूट गई परंपरा शक्कर-शर्बत बांटने की, इस बार चमलियाल मेले में नहीं मिले दिल मिले

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: June 25, 2020 16:47 IST

आसपास के गांवों के लोगों को भी दरगाह तक पहुंचने की मनाही कर दी गई थी क्योंकि बीएसएफ तथा स्थानीय प्रशासन ने मेले को रद्द करते हुए दरगाह पर आने वालों को चेताया था कि वे उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं करवा सकते हैं तथा कोरोना के कारण सामाजिक दूरी बनाए रखना मुश्किल काम है।

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ठळक मुद्देकोरोना पाबंदियों के चलते गिनती के ही श्रद्धालु शामिल हुए और इस बार दोनों मुल्कों के बीच शक्कर-शर्बत का आदान प्रदान भी नहीं हुआ।ऐसे में चमलियाल दरगाह जो दोनों देशों के लोगों की आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है, पर आज बैरौनक छाई रही। आज के दिन जहां इस दरगाह पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा रहता था वहां इक्का-दुक्का स्थानीय श्रद्धालु ही पहुंचे।

जम्मूः कई सौ सालों से चले आ रहे चमलियाल मेले पर इस बार कोरोना के साथ साथ सीमा के तनाव की छाया भी पड़ ही गई। पाक गोलियों से बचाने की खातिर हालांकि वार्षिक मेले का आयोजन नहीं हुआ।

कोरोना पाबंदियों के चलते गिनती के ही श्रद्धालु शामिल हुए और इस बार दोनों मुल्कों के बीच शक्कर-शर्बत का आदान प्रदान भी नहीं हुआ। आसपास के गांवों के लोगों को भी दरगाह तक पहुंचने की मनाही कर दी गई थी क्योंकि बीएसएफ तथा स्थानीय प्रशासन ने मेले को रद्द करते हुए दरगाह पर आने वालों को चेताया था कि वे उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं करवा सकते हैं तथा कोरोना के कारण सामाजिक दूरी बनाए रखना मुश्किल काम है।

ऐसे में चमलियाल दरगाह जो दोनों देशों के लोगों की आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है, पर आज बैरौनक छाई रही। आज के दिन जहां इस दरगाह पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा रहता था वहां इक्का-दुक्का स्थानीय श्रद्धालु ही पहुंचे। कारण था कोरोना महामारी का प्रकोप।

कोरोना संकट के चलते प्रशासन ने दरगाह पर मेले के आयोजन की इजाजत नहीं दी

कोरोना संकट के चलते प्रशासन ने दरगाह पर मेले के आयोजन की इजाजत नहीं दी। हालांकि रस्म के अनुसार बीएसएफ के आइजी एनएस जम्वाल, डीआइजी ओपी उपाध्याय के साथ कुछ अन्य अधिकारियों व गांव के पंच-सरपंचों के साथ मिलकर बाबा दिलीप सिंह की मजार पर चादर चढ़ाई।

करीब 322 वर्ष साल से लगातार जिला सांबा के रामगढ़ में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर लगने वाले चमलियाल मेले (उर्स) का आयोजन हर साल जून महीने के चौथे वीरवार को होता है। जम्मू कश्मीर प्रशासन व सीमा सुरक्षा बल की तरफ से मेले के लिए तैयारिया की जाती हैं। परंतु इस साल कोरोना संक्रमण के कारण प्रशासन ने अन्य धार्मिक समारोह की तरह ही इस मेले को भी आयोजित करने की इजाजत नहीं थी। इक्का-दुक्का अधिकारियों को ही चादर चढ़ाने के लिए कहा गया था।

सीमा सुरक्षाबल के कमांडिंग आफिसर के शब्दों में हम खतरा मोल नहीं ले सकते थे

सीमा सुरक्षाबल के कमांडिंग आफिसर के शब्दों में हम खतरा मोल नहीं ले सकते थे। पाकिस्तान ने दरगाह को निशाना बना कर कई बार गोलियां ही नहीं बल्कि मोर्टार भी दागे थे और ऐसे में जबकि दरगाह को अपवित्र करने की कोशिश उसके द्वारा की गई हो वह क्या मान्यता रखेगा बाबा के प्रति।’ कमांडिग आफिसर ने दरगाह की दीवारों पर लगे गोलियों के निशानों को दिखाया था।

एक सबसे बड़ा कारण इस बार दोनों देशों के बीच शक्कर व शर्बत के आदान-प्रदान न होने का यह भी रहा था। हालांकि इन सबके लिए जिम्मेदार तो कोरोना ही था पर सीमा का तनाव भी जिम्मेदार था जो भारी पड़ा था। नतीजतन लगातार तीसरी बार शक्कर व शर्बत बांटने की परंपरा टूट गई। मेले के बारे में एक कड़वी सच्चाई यह थी कि जब 1947 में देश का बंटवारा हुआ था तो दरगाह के दो भाग हो गए थे। असली दरगाह इस ओर रह गई और उसकी प्रतिकृति पाकिस्तानी नागरिकों ने अपनी सीमा चौकी सैदांवाली के पास स्थापित कर ली।

मेले में शामिल होने वालों की संख्या चार लाख से भी अधिक होती है

बताया यही जाता है कि पाकिस्तानी नागरिक बाबा के प्रति कुछ अधिक ही श्रद्धा रखते हैं तभी तो इस ओर मेला एक दिन तथा उस ओर सात दिनों तक चलता रहता है जबकि इस ओर 60 से 70 हजार लोग इसमें शामिल होते रहे हैं जबकि सीमा के उस पार लगने वाले मेले में शामिल होने वालों की संख्या चार लाख से भी अधिक होती है।

कोरोना तथा सीमा पर बने हुए तनाव ने इस बार उन रोगियों के कदमों को भी रोक रखा था जो चर्म रोगों से मुक्ति पाने की खातिर इस दरगाह पर पहले सात सात दिनों तक रूकते थे। लेकिन अब वे दिन में ही आकर दिन में वापस लौट जाते हैं क्योंकि सेना और सीमा सुरक्षाबल उनके प्रति कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं हैं। वैसे मेले वाले दिन बीसियों ऐसे चर्म रोगियों से मुलाकातें होती रही हैं परंतु इस बार मात्र कुछ ही चर्मरोगी दरगाह के आसपास इलाज करवाने आए हुए थे।

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