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सियासतः पीएम पद की चाहत में केन्द्र गया, सीएम पद की चाहत में यूपी भी जाएगा, पश्चिम बंगाल में क्या होगा?

By प्रदीप द्विवेदी | Updated: June 27, 2019 13:26 IST

लोकसभा चुनाव में मात खाने के बाद जहां ममता बनर्जी गैर-भाजपाई एकता की बात कर रहीं हैं, वहीं मायावती फिर से एकला चलो की राजनीतिक राह पर चल पड़ी हैं.

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कई क्षेत्रीय नेताओं की प्रधानमंत्री पद जैसी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा के कारण गैर-भाजपाई लोकसभा चुनाव में एकजुट नहीं हो पाए और बीजेपी फिर से केन्द्र की सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गई!

अब लोकसभा चुनाव में मात खाने के बाद जहां ममता बनर्जी गैर-भाजपाई एकता की बात कर रहीं हैं, वहीं मायावती फिर से एकला चलो की राजनीतिक राह पर चल पड़ी हैं. वजह साफ हैं, ममता बनर्जी को 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी सत्ता बचानी है, जबकि मायावती को पता है कि सपा-बसपा गठबंधन बना रहा तो सीएम का पद अखिलेश यादव को देना पड़ सकता है. मायावती अकेले रह कर अपनी सोच और सियासी फायदे के मद्देनजर किसी भी दल के साथ जा सकती हैं, गठबंधन कर सकती हैं.

यूपी में बीजेपी तीस से चालीस प्रतिशत तक का वोट बैंक बनाने में कामयाब रही है, लिहाजा यदि गैर-भाजपाई वोटों का बिखराव हुआ तो अगले यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता से हटाना मुश्किल होगा.

ममता बनर्जी 2011 से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं और उनके आक्रामक राजनीति तेवर बंगाल की सियासी सोच के अनुरूप हैं, जिनके दम पर वह सत्ता में आईं थी. वे पश्चिम बंगाल में बतौर सीएम पहली महिला हैं, तो केन्द्र में उन्होंने भारत के रेल मंत्री, कोयला मंत्री और मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री के रूप में भी काम किया है. 

ममता बनर्जी ने महज पन्द्रह साल की उम्र में राजनीति में कदम रखा और कांग्रेस की छात्र शाखा की स्थापना की. वर्ष 1970 में कांग्रेस से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और उन्हें वर्ष 1976 में महिला कांग्रेस का महासचिव बनाया गया. बहुत कम उम्र में वर्ष 1984 में ममता बनर्जी ने चुनाव में कम्युनिस्ट नेता सोमनाथ चटर्जी को मात दी.

वर्ष 1997 में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस छोड़ दी और अलग से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नाम से नया राजनीतिक दल बनाया.

वर्ष 1999 में वे एनडीए सरकार में शामिल हो गईं. उन्हें रेल मंत्रालय मिला, लेकिन वर्ष 2001 में एनडीए से अलग हो गईं और वर्ष 2004 में फिर एनडीए में लौटीं. वर्ष 2009 में उन्होंने यूपीए का साथ दिया, लेकिन 2012 में यूपीए से अलग हो गईं. जाहिर है कि प्रादेशिक राजनीति में तो ममता बनर्जी अकेले कामयाब हो सकती हैं, सीएम बन सकती हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अकेले दम पर पीएम बनना संभव नहीं है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी के बढ़ते असर को वे समझ नहीं पाई और लोकसभा चुनाव में तीसरे मोर्चे की सियासी समीकरण साधने के चक्कर में उनकी प्रादेशिक राजनीतिक जमीन पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया. अभी भी पश्चिम बंगाल में गैर-भाजपाई वोट पचास प्रतिशत से ज्यादा हैं, लिहाजा कांग्रेस, लेफ्ट आदि दलों को साथ लेकर ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में उतरतीं हैं तो प्रदेश की सत्ता फिर से हांसिल कर सकती हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो गैर-भाजपाई वोटों का बिखराव उनके लिए सियासी संकट का सबब बन जाएगा.

वैसे, इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को प्रत्यक्ष फायदा नहीं हुआ है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है कि क्षेत्रीय दलों को असली सियासी जमीन नजर आ गई है, जो कांग्रेस की राजनीतिक राह में रोड़ा बने हुए थे, मतलब... गैर-भाजपाई मतदाताओं के बीच भ्रम समाप्त होने के साथ ही अगले चुनाव में कांग्रेस की स्थिति में और सुधार संभव होगा!

टॅग्स :राजनीतिक किस्सेममता बनर्जीमायावतीअखिलेश यादवनरेंद्र मोदीकांग्रेसभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)टीएमसीबहुजन समाज पार्टी (बसपा)समाजवादी पार्टी
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