नयी दिल्ली, 12 मई जेलों में भीड़भाड़ से चिंतित उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि यह अदालतों पर निर्भर करता है कि वह चुनिंदा मामलों में आरोपियों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत नजरबंद करने का आदेश देने पर विचार कर सकती हैं।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषी करार दिए जाने के बाद के मामलों में विधायिका कुछ मामलों में आरोपियों को नजरबंद करने पर विचार करने के लिए स्वतंत्र है।
जेलों में भीड़भाड़ और जेलों की देखभाल पर राज्यों को आने वाले खर्च का जिक्र करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि नजरबंदी की अवधारणा को अपनाया जा सकता है।
न्यायमूर्ति यू. यू. ललित और न्यायमूर्ति के. एम. जोसफ की पीठ ने कहा, ‘‘...हम उम्र, स्वास्थ्य स्थिति और आरोपी के इतिहास, अपराध की प्रकृति, अन्य तरह से हिरासत में रखने की जरूरत जैसे मानकों और नजरबंदी लागू करने की शर्तों के बारे में बता सकते हैं। हमारी टिप्पणी है कि धारा (सीआरपीसी) 167 के तहत उपयुक्त मामलों में अदालतें नजरबंदी का आदेश दे सकती हैं।’’
शीर्ष अदालत का फैसला कार्यकर्ता गौतम नवलखा की याचिका पर आया जिन्होंने बंबई उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर उन्हें जमानत देने से इंकार कर दिया था कि कानून के तहत एनआईए ने एक निश्चित समय के अंदर आरोपपत्र दायर नहीं किया है।
Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।