Caste Census: केन्द्र सरकार के द्वारा जातिगत जनगणना कराने के फैसले के बाद बिहार की राजधानी पटना के हर चौराहे को पोस्टरों से पाट दिया गया है। सड़कों पर लगे पोस्टरों पर लिखा है, "नीतीश ने दिखाया, अब देश ने अपनाया! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को धन्यवाद, जाति जनगणना: बिहार से भारत तक!" पटना के व्यस्त चौराहों, जैसे गांधी मैदान, डाकबंगला चौराहा और बेली रोड पर पोस्टर और बैनर लगाए गए हैं, जिनमें नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी को धन्यवाद दिया जा रहा है। यह नारा बिहार की पहल को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किए जाने का प्रतीक बन गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व और केंद्र सरकार के ताजा फैसले को जोड़कर एक नया राजनीतिक समीकरण बना रहा है। बिहार ने 7 जनवरी 2023 से शुरू हुए जाति आधारित सर्वेक्षण के साथ एक नया इतिहास रचा था।
इस सर्वेक्षण के आंकड़े 2 अक्टूबर 2023 को जारी किए गए, जिसमें बिहार की कुल जनसंख्या 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 बताई गई। सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य में 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), 19 फीसदी अनुसूचित जाति (एससी) और 1.68 फीसदी अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी है। सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 15.52 फीसदी दर्ज की गई।
इस सर्वेक्षण को बिहार सरकार ने 'बिजगा' (बिहार जाति आधारित गणना) मोबाइल ऐप के माध्यम से डिजिटल रूप से पूरा किया, जिसमें 214 जातियों का डेटा संग्रहित किया गया। बिहार के इस कदम ने न केवल सामाजिक-आर्थिक नीतियों के लिए महत्वपूर्ण आंकड़े उपलब्ध कराए, बल्कि पूरे देश में जातिगत जनगणना की मांग को भी और मजबूत किया।
नीतीश कुमार और तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से बार-बार आग्रह किया था। बिहार विधानमंडल ने 18 फरवरी 2019 और 27 फरवरी 2020 को जातिगत जनगणना का प्रस्ताव पारित किया था। हालांकि, केंद्र सरकार ने शुरू में इसे अस्वीकार करते हुए कहा था कि केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की गणना ही संभव है।
विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की राजनीति को प्रभावित करेगा। बताया जाता है कि भारत में अंतिम बार 1931 में औपनिवेशिक काल के दौरान जातिगत जनगणना हुई थी। 1941 में जाति आधारित डेटा तो जुटाया गया, लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया गया।
आजादी के बाद 1951 से 2011 तक की जनगणनाओं में केवल एससी और एसटी का डेटा शामिल किया गया, जबकि ओबीसी और अन्य जातियों का डेटा नहीं लिया गया। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (एसईसीसी) कराई, लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।