नई दिल्ली: वर्ष 2024 में होने वाले चुनाव में भाजपा के ही आगे रहने के आसार दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में विपक्ष को भाजपा को हराने या भाजपा से मुकाबले का एक ही तरीका नजर आ रहा है, 'भाजपा विरोधी' दल एकजुट होकर भाजपा को सत्ता से बाहर करने की कोशिश करें।
यह एकजुट होने वाली स्थिति भी देश में पहली बार नहीं बनी है। कभी कांग्रेस से मुकाबले के लिए राजनीतिक दल इस तरह की रणनीतियां बनाया करते थे, आज कांग्रेस आह्वान कर रही है कि विरोधी-पार्टियां मिल कर भाजपा को हराने की कोशिश करें। लगभग आधी-सदी पहले वर्ष 1967 में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने पहली बार गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया था, अर्थात देश के राजनीतिक दलों से कहा था कि वे मिलकर कांग्रेस पार्टी की ‘गलत रीति-नीति’ का विरोध करें।
ऐसा हुआ और लगभग नौ राज्यों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी फिर जब कांग्रेस ने आपातकाल की घोषणा करके जनतंत्र को पटरी से उतारा तो जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, वर्ष 1977 में, जनता पार्टी का गठन हुआ था, जिसमें कांग्रेस पार्टी का विरोध करने वाले लगभग सभी दल शामिल हुए थे।
पिछले लगभग नौ साल से केंद्र में भाजपा का शासन है, देश के अधिसंख्य राज्यों में भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें हैं। आज जो स्थिति है वह यह है कि विपक्षी दल किसी एक रणनीति पर एकमत नहीं हो पा रहे हैं। सच पूछें तो सवाल नीति का है ही नहीं, सवाल अलग-अलग नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का है। बिहार में नीतीश कुमार नेतृत्व का दावा कर रहे हैं तो बंगाल में ममता बनर्जी।
दक्षिण में तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव ने अपना नाम अखाड़े में उछाल दिया है तो ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल भी ऊंचे सपने देख रहे हैं। वैसे अलग-अलग नेताओं की इस दावेदारी में न तो कुछ अस्वाभाविक है और न ही गलत लेकिन देश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह सवाल तो उठता ही है कि सिर्फ सत्ता से किसी को हटाने के लिए या स्वयं सत्ता में आने के लिए सिद्धांतहीन गठबंधन जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से कितने उचित हैं?
1967 में और फिर 1977 में, दो बार, देश में ऐसे गठबंधन के प्रयोग हम देख चुके हैं। विपक्ष के सभी दलों का साथ आना तब एक राजनीतिक आवश्यकता थी। इसका परिणाम भी निकला, पर ज्यादा दिन तक चल नहीं पाया यह प्रयोग। सच तो यह है कि कुल मिलाकर ये प्रयोग अवसरवादी राजनीति का उदाहरण बन कर रह गए. फिर हमने अलग-अलग राज्यों में इस घटिया राजनीति के प्रयोग देखे। नेताओं के राजनीतिक स्वार्थ भले ही इस खेल में सधते रहे हों, पर जनतांत्रिक मूल्यों-आदर्शों की तो ऐसे हर प्रयोग में हार ही हुई है।