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अवधेश कुमार का ब्लॉग: यूं ही नहीं हुई है कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की रिहाई

By अवधेश कुमार | Updated: March 15, 2020 06:10 IST

विचार करने वाली बात है कि आखिर फारूक इतना संतुलित और संयमित रुख क्यों अपना रहे हैं? क्या इतने दिनों तक दुनिया से दूर रहने के बीच उन्होंने जम्मू-कश्मीर के बदले हुए हालात से समझौता कर लिया है? या भविष्य में क्या किया जाए या किया जाना चाहिए इस प्रश्न को लेकर अभी उनके अंदर कोई निश्चयात्मक रूपरेखा नहीं है? या फिर किसी बात का भय है?

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जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्नी व सांसद डॉ. फारूक अब्दुल्ला को हिरासत में लिए जाने तथा उन पर जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) लगाने की जितनी व्यापक चर्चा हुई उतनी उनकी रिहाई की नहीं हो रही है. यही अंतर साबित करता है कि पांच अगस्त 2019 और मार्च 2020 में जम्मू-कश्मीर और उसे लेकर देश का वातावरण काफी बदल चुका है.

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने तथा राज्य को विभाजित कर उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाते समय फारूक अब्दुल्ला को हिरासत में लिया गया था तथा 17 सितंबर 2019 को उन्हें पीएसए के तहत बंदी बनाया गया था. करीब साढ़े सात माह बाद रिहा होने को कई लोग चौंकाने वाली घटना कह रहे हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. फारूक के मामले की समीक्षा पीएसए मामलों पर गठित सलाहकार समिति को करनी थी.

यह साफ था कि समिति अगर उनके पीएसए की अवधि नहीं बढ़ाती है तो सामान्य परिस्थितियों में मार्च में किसी समय उनकी रिहाई हो जाएगी. हालांकि रिहाई के बाद फारूक द्वारा वक्तव्य देने में बरती जा रही सतर्कता अवश्य चौंकाने वाली है.

माना जा रहा था कि वे निकलने के बाद केंद्र सरकार पर हमला करेंगे तथा कश्मीर को लेकर ऐसा बयान देंगे जिससे नए सिरे से राजनीति गरम होगी. किंतु उन्होंने केवल इतना कहा कि अब मैं आजाद हूं. राजनीति के बारे में पूछे गए सवाल पर उनका एक ही उत्तर था, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं की रिहाई तक कोई राजनीतिक बातचीत नहीं होगी.

विचार करने वाली बात है कि आखिर फारूक इतना संतुलित और संयमित रुख क्यों अपना रहे हैं? क्या इतने दिनों तक दुनिया से दूर रहने के बीच उन्होंने जम्मू-कश्मीर के बदले हुए हालात से समझौता कर लिया है? या भविष्य में क्या किया जाए या किया जाना चाहिए इस प्रश्न को लेकर अभी उनके अंदर कोई निश्चयात्मक रूपरेखा नहीं है? या फिर किसी बात का भय है?

ये सारे प्रश्न स्वाभाविक ही उठ रहे हैं. फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के कोई सामान्य नेता नहीं हैं. उनके परिवार का शासन सबसे ज्यादा समय तक रहा है. जम्मू-कश्मीर की पूरी राजनीति पिछले चार दशकों से उनके और बाद में मुफ्ती परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही है. वे कह रहे हैं कि मैं जल्दबाजी में कोई राजनीतिक कदम नहीं उठाऊंगा, हालात का जायजा लेने के बाद नए एजेंडे को सार्वजनिक करूंगा.

संभव है आगे वे विपक्षी नेताओं से बातचीत के बाद धीरे-धीरे अपने रुख में बदलाव लाएं. हालांकि फारूक को पता है कि भाजपा विरोधी पार्टियों और नेताओं ने अवश्य उनकी रिहाई के लिए आवाज उठाई किंतु जम्मू-कश्मीर की राजनीति में वे उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते. आखिर उनको हिरासत में लिए जाने से लेकर पीएसए के तहत गिरफ्तारी को विपक्ष नहीं रोक सका.

ध्यान रखिए, उनकी रिहाई के पांच दिन पूर्व राकांपा अध्यक्ष शरद पवार, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी, माकपा नेता सीताराम येचुरी समेत विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने प्रधानमंत्नी और केंद्रीय गृह मंत्नी को एक संयुक्त पत्न लिखकर जम्मू-कश्मीर के तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत प्रमुख राजनीतिक नेताओं की रिहाई का आग्रह किया था.

यह मानना गलत होगा कि इस पत्न के आधार पर केंद्र ने उनको रिहा किया है. कारण, इस पत्न में विपक्ष ने सरकार पर तीखे हमले भी किए थे. दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार की नीति जम्मू-कश्मीर की परंपरागत राजनीति को बदलने की है. इसलिए हर पार्टी के नेताओं से संपर्क बनाए रखने की कोशिश हुई है.

बीडीसी चुनाव में भाग लेने के लिए लोग रिहा किए गए और चुनाव सफलतापूर्वक हुआ. इस नीति का एक भाग प्रदेश में पारिवारिक राजनीति को कमजोर करना है.

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