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देस गाँव: समाज के दिमाग में बैठे वाद की गाद को छाँटने का प्रयास करती एक किताब

By अभिषेक पाण्डेय | Updated: May 25, 2022 16:43 IST

अभिषेक श्रीवास्तव के किताब 'देस गाँव' के बहाने समाज के दिमाग में बैठी गाद पर एक नजर। यह किताब अगोरा प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित है।

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ठळक मुद्देपत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की किताब जल, जंगल और जमीन से जुड़े मुद्दों पर की गयी रपट का संग्रह है। 'देस गाँव' की हर रपट में विभिन्न जन आन्दोलनों की प्रचलित नजरिए से भिन्न दृष्टिकोण से पड़ताल की गयी है।

अनुपम मिश्र ने दो दशक पहले अपनी किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' में तमाम पुरानी बावलियों और तालाबों का जिक्र करते हुए लिखा था कि गाद तालाबों में नहीं, हमारे समाज के दिमाग में भर गई है। 

सच भी है कई तरह के गाद, वाद के रूप में हमारे अंदर पैठ बना चुका है। तो क्या ही किया जाए, गाद को छोड़ दिया जाए या अपने स्तर से इसकी सफाई करते रहा जाए! हो सकता है कि हम इस गाद को साफ न कर पाएँ ,सच भी है कि कई बार हम इस भ्रम में रहते हैं कि हम कुछ कर पा रहे हैं लेकिन यह भी एक भ्रम ही रहता है और सचमुच हम जहां से शुरू किए रहते हैं वही पर खड़े पाते हैं खुद को।

लेकिन इस पूरी यात्रा में यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम जहां से शुरू किए हों अपने आप को उस कोमलता, संवेदनशीलता के साथ ही बचा लिया जाए! ये एक दौर है खुद को बचा लेने का! यह सब इसलिए भी लिख रहा हूं कि मैंने अपने प्रिय लेखकों में से कुछ को यह कहते हुए सुना कि वह सोच रहे हैं कि फेसबुक से छुट्टी लिया जाए। खासकर अभिषेक श्रीवास्तव का कहना कि यहां पर रहना गोइठा में घी सुखाने जैसा है।

इस बात पर उनको और उनके जैसे लोगों से मुझे यही कहना है कि आप कई बार जाने अनजाने गाद साफ कर रहे होते हैं और आपको यह आभास भी नहीं होता। खैर इस क्रम में अभिषेक जी की एक पुस्तक "देस गांव" की मैं चर्चा करना चाहूंगा ,जिसमें उन्होंने समाज के गाद को कहीं भी साफ करने का प्रयास नहीं किया लेकिन वह पुस्तक अपने आप मे ही उस उद्देश्य को पूरा करती है।

Abhishek Srivastva Des Gaon Review
कुल नौ प्रदेशों की कुछ समस्याओं की यह ग्राउंड रिपोर्टिंग है जिसमें लेखक का जमीनी स्तर पर समस्याओं को समझने देखने के लिए किए गए प्रयास को भी हम देखते हैं। यह दिखता है कि जब पत्रकारिता को लेकर 'दलाल' शब्द आम लोग धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हों तब अभिषेक जी का यह काम एक प्रकाशपुंज की तरह है। यह न सिर्फ पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए बल्कि उनलोगों के लिए भी जरूरी है जो समाजसेवा के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं।

नौकरशाह हो या राजनेता वह इस पुस्तक के माध्यम से समझ सकते हैं कि आखिरकार मूल समस्या क्या है , कहां है और इसके समाधान का असली रास्ता क्या है!

अमूमन समस्या और समाधान एक दिशा में नहीं होते और हर स्टेकहोल्डर का अपना अपना वर्जन होता है इसलिए भी समस्या अपने आप मे जस का तस बनी रहती है या फिर और विकृत रूप में सामने आती है।

ऐसे काम हिंदी में तो और भी कम हो रहे हैं, भाषा के हिसाब से भी यह अमूल्य काम है जिसको हम गोइठा में घी सुखाना नहीं कह सकते।

'सोन का पानी है लाल' , 'नियमगिरि की जंग' , या फिर ज़ुल्मतों और इंसाफ के बीच ठिठकी ज़िंदगी' , या फिर 'इंसाफ का नरक कुंड'  व्यवस्था और लोक के बीच के गैप को दिखाती है। नौकरशाहों के लिए भी जरूरी है कि एक पत्रकार के चश्मे को पहना जाए ताकि उनकी रोशनी और साफ हो सके और नज़र मजबूत हो सके!

आम आदमी, मीडिया, नौकरशाही, संसदीय व्यवस्था, पूंजीपतियों , माफियाओं सबके गठजोड़ से जो भारत मे चल रहा है इनको बखूबी बयां करती यह किताब मेरे लिए तो बहुत महत्वपूर्ण है।

कई बार जब मैं अशांत होता हूं तो इनकी कुछ रिपोर्टिंग पढ़ लेता हूं फिर यह समझ में आता है कि समाज में कितने स्तर पर कितनी लड़ाइयां चल रही है और हम इसमें एक नट-बोल्ट की तरह है। बस लड़ाई में फर्क पड़े ना पड़े लड़ते रहना है चलते रहना है और अगर गोइठा में घी सूख भी गया तो क्या हुआ इसको इसी लोक में स्वाहा कर देना है।

'देस गाँव' किताब को अमेजन के इस लिंक से प्राप्त किया जा सकता है। 

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