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महिलाओं नहीं पुरुषों के लिए पहली बार बना था सैनेटरी पैड, जानें इसका इतिहास और शुरुआत की पूरी कहानी

By ऐश्वर्य अवस्थी | Updated: February 5, 2018 19:11 IST

एक समय था कि लोग सार्वजनिक रूप से सैनिटरी पैड्स के बारे में बात करना तो दूर, उन्हें देखने तक से कतराते थे। और काफी हद तक आज भी वैसा ही समय है, लेकिन अगर हम कहें कि औरतों के पीरियड्स से जुड़े इस प्रॉडक्ट का अविष्कार दरअसल पुरुषों के लिए किया गया था तो

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बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन 9 फरवरी को पर्दे पर  आ रही है। फिल्म महिलाओं के जीवन के उस पड़ाव को पेश कर रही है जिस पर आज भी 90 फीसदी लोग बात करना तो दूर उस पर बोलने में खुद में शर्म महसूस करते हैं। फिल्म में महिलाओं के हर माह होने वाले मासिक धर्म(पीरियड्स) के दौरान सैनेट्री पैड के प्रयोग पर प्रदर्शित किया जाएगा। फिल्म के पर्दे पर आने से पहले हर कोई आज पीरिड्स और सैनेट्री पैड पर बात कर रहा है, लेकिन क्या किसी को ये पता है पहली बार से सैनेट्री पैड कब बने और क्यों बनें। महिलाओं के सामने सैनेट्री पैड का नाम तक लेने में खुद में शर्म महसूस करने वाले पुरुषों को शायद ये ना पता हो कि पहली बार ये पैड महिलाओं के लिए नहीं बल्कि पुरुषों की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे। 

महिलाओं नहीं पुरुषों के लिए बनाए गए थे पैड

'माय पीरियड ब्लॉग' की एक पोस्ट की मानें तो सेनिटरी पैड का प्रयोग सबसे पहसे प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान किया गया था। फ्रांस की नर्सों ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान घायल हुए सैनिकों की एक्सेसिव ब्लीडिंग को रोकने के लिए इसको पहली बार तैयार किया था। कहते हैं, इस नैपकीन को  सैनिकों को गोलियों से बचाने के वाले बेंजमिन फ्रेंकलिन के एक अविष्कार से प्रेरित होकर पहली बार बनाया गया था। इन नैपकिन्स को बनाते हुए ध्यान रखा गया था कि ये आसानी से खून को सोख सके और एक बार प्रयोग के बाद इसको हटाया(डिस्पोज) जा सके। इससे पहले कोई भी सैनिटरी पैड का प्रयोग नहीं करता था। जब फ्रांस में सैनिकों के लिए सैनिटरी पैड तैयार किए गए, उसके बाद फ्रांस में काम करने वाली अमेरिकी नर्सों ने इन्हें पीरियड्स के दौरान यूज करना भी शुरू कर दिया, जिसके बाद इसे आम तौर पर इसी रूप में प्रयोग में लाया जाने लगा।

 1888 में  कॉटेक्स ने युद्ध में प्रयोग किए गए पैड के आधार पर 'सैनिटरी टावल्स फॉर लेडीज' के नाम से सैनिटरी पैड्स का निर्माण शुरू किया गया था।  1886 में इससे पहले जॉनसन ऐंड जॉनसन ने  'लिस्टर्स टावल्स' नाम से डिस्पोजबल नैपकिन्स का निर्माण शुरू कर दिया था। इनको रूई वूल या फिर  इसी तरह के दूसरे फाइबर को अब्जॉर्बेट लाइनर से कवर करके तैयार किया जाता था। लेकिन ये पैड उस दौकान इतने महंगे होते थे कि महिलाओं के लिए खरीदना कोसों दूर था। आज भी हमारे देश में महिलाओं सैनेटरी पैड को खरीदने के लायक पैसे नहीं कमा पाती हैं और वह इसको अपनी ही सुरक्षा , जरुरत के लिए प्रयोग नहीं कर पा रही हैं।

जीएसटी के हो बाहर

सैनेटरी पैड जो हर महिला की जरुरत है, उसकी खरीद हर आम औरत के बजट के बाहर है जिस कारण से वह इसको प्रयोग में नहीं ला पाती हैं। अलग अलग कंपनियों के पैड बाजार में हैं, सबके अपने हिसाब से रेट हैं। वहीं, गरीब औरतों के लिए किफायती पैड्स बनाने वाले अरुणाचलम मुरुगंथम ने भले सबसे सस्ता पैड महिलाओं को दिया हो लेकिन जीएसटी और टैक्स लगने के बाद वो पैड महिलाओं को आज भी बजट के बाहर ही पड़ रहे हैं। सैनेटरी पैड के एक पैकेट पर 12.5 परसेंट टैक्स था जो जीएसटी के लागू होने के बाद 14 परसेंट टैक्स में बदल चुका है। 20 रुपए के एक पैकेट की कीमत बढ़कर 20.50 रुपए हो गई है। ऐसे में सवाल ये भी महिलाओं की बात करने वाली सरकार सैनेटरी पैड पर किसी भी प्रकार का टैक्स क्यों लगा रही। आम महिलाओं का कहना है कि सरकार को ऐसा बिल लाना चाहिए जिसमें ये नियम हो कोई भी कंपनी 5 रुपये से ज्यादा महंगा कोई पैड का पैकेट बेच ही नहीं सकती है।

कितनी फीसदी पैड करती हैं यूज

भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि देश में सिर्फ 57 परसेंट औरतें पीरियड्स के समय सुरक्षित और साफ-सुथरे उपयोग कर पाती हैं। बाकी की महिलाएं असुरक्षित तरीके अपनाने को मजबूर हैं। ये सुरक्षित तरीके, कमर्शियल नैपकिन्स और स्थानीय स्तर पर बनाए गए सेनिटरी पैड्स। असुरक्षित तरीके अपनी सुविधानुसार या जेब अनुसार अपनाए जाते हैं। कपड़े, कागज, प्लास्टिक, रेत, घास,  और पता नहीं क्या-क्या. क्या यह सोचा जा सकता है कि इनका कोई कैसे इस्तेमाल करता होगा? इस तरह के असुरक्षित प्रयोग कई बार महिलाओं की जानन तक ले लेते हैं। असुरक्षित चीजों का प्रयोग इन महिलाओं की मजबूरी है।

राज्य सरकार ने उठाया कदम

अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन की तर्ज पर महाराष्ट्र सरकार अब पूरे महाराष्ट्र में सेनेटरी पैड बनाकर बेचेगी। सरकार चार से पांच गुना कम कीमत पर इसे उपलब्ध कराएगी। जिससे खासकर ग्रामीण इलाके और सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए ये ज्यादा उपलब्ध होगा। इसके जरिए हर महिला और छात्रा के पास ये उपलब्ध हो सकेगा। सरकार महाराष्ट्र के बचत गुट या सेल्फ हेल्प ग्रुप की मदद से ये पूरे राज्य के ग्रामीण इलाके में इसको ले जाया जाएगा । वहीं,  लोगों तक इस नए कार्यक्रम के प्रचार के लिए सरकार ने 1 करोड़ रुपए का आवंटन किया है।  महाराष्ट्र की महिला एंव बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे ने हाल ही में कहा था कि सरकार का, स्वच्छता अभियान का मिशन के बिना कभी पूरा नहीं हो सकता है, इसलिए राज्य सरकार का हर लड़की के लिए सस्ता और अच्छा सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराना पहली जरुरत होगी।

मासिक धर्म की वजह से नहीं आती पढ़ने लड़कियां

आमतौर पर स्कूल में लडकियों के उपस्थित में  भारी गिरावट के बाद सरकार ने इसका सर्वे किया तो पता चला कि सरकारी स्कूलों में साल भर में लडकियां 50 से 60 दिन सिर्फ मासिक धर्म आने के कारण नहीं आती हैं। इसका एक कारण यह भी है कि आमतौर पर इनके पास सुरक्षित पैड नहीं होते हैं जो इस दौरान ये प्रयोग में ला सकें, इसी डर के कारण अधिकांशतौर पर लड़कियां स्कूल जाने से डर रही हैं।

90 फीसदी लोग अब भी नहीं करते हैं इस पर बात

आज भी हमारे समाज में पीरियड्स जैसी अहम बात पर लोग बात नहीं करना चाहते हैं। पीरियड्स जितना जरुरी महिला के लिए है उतनी ही आवश्यक पुरुषों के लिए है क्योंकि अगर महिला को मासिक धर्म नहीं होगें तो ये संसार आगे कैसे बढ़ेगा। आज भी महिलाओं की इस प्राकृतिक प्रक्रिया को छूत और ना जाने किस किस रूप में देखा जा रहा है। आज भी घर में पुरुषो को मासिक धर्म के बार में ना तो बताया जाता है और ना ही वो इसपर बात करना अच्छी बात समझते हैं।

फिल्म रिलीज के बाद फिर होगा वही रूप 

फिल्म रिलीज के बाद फिर से वही रूप हम देखने को मिलेगा। लोगों की सोच को बदलने के लिए पेश की जाने वाली फिल्म के रिलीज के बाद क्या लोगों की सोच बदलेगी। सवाल बहुत सारे हैं सरकार कब सबसे सस्ता सैनेडरी पैड महिलाओें को देगी। कह सकते हैं कि कहीं फिल्म के रिलीज के बाद ये मुद्दा गायब ना हो जाए। 

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