पाकिस्तान चुनाव विशेष: बेनजीर भुट्टो ने पिता के हत्यारों से ही मिला लिया हाथ, सत्ता के लिए भाई को रखा देश से दूर

By राजेश बादल | Published: July 20, 2018 07:57 PM2018-07-20T19:57:43+5:302018-07-20T19:57:43+5:30

पाकिस्तान में 25 जुलाई को आम चुनाव होने हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल पाकिस्तानी के राजनीतिक इतिहास पर लोकमत समाचार के लिए विशेष शृंखला लिख रहे हैं। आज पढ़िए पिता की हत्या के बाद सत्ता पाने वाली बेनजीर भुट्टो ने गद्दी पाने के बाद क्या किया।

pakistan election special how benazir bhutto won election and become friend with general zia | पाकिस्तान चुनाव विशेष: बेनजीर भुट्टो ने पिता के हत्यारों से ही मिला लिया हाथ, सत्ता के लिए भाई को रखा देश से दूर

पाकिस्तान चुनाव विशेष: बेनजीर भुट्टो ने पिता के हत्यारों से ही मिला लिया हाथ, सत्ता के लिए भाई को रखा देश से दूर

जनरल जिया ने 1988 में नए चुनाव कराने का ऐलान किया था। जब इन्तखाबात हुए तो बेनजीर भुट्टो को कामयाबी मिली। हालांकि उनकी पार्टी को अपेक्षा के अनुसार सीटें नहीं मिलीं। हां, पिता को फांसी से उपजी सहानुभूति लहर का फायदा जरूर मिला अन्यथा उनकी अपनी स्लेट तो कोरी थी। यहां तक कि न ढंग से उर्दू बोल पाती थीं, न लिखना आता था। आईने के सामने रट-रट कर भाषण देने का रियाज करती थीं। रोमन में उर्दू के अल्फाज लिखे जाते थे। अलबत्ता जिया उल हक के विरोध में चलाए आंदोलन ने और भुट्टो की बेटी होने के नाते उन्हें राजनीतिक परिपक्वता और पहचान मिली थी।

यह भी ध्यान देने की बात है कि बेनजीर को जो जीत मिली थी उसका कारण लोगों में जिया उल हक का विरोध था, न कि बेनजीर में भरोसा। दरअसल बेनजीर लोगों के वोट को अपनी जीत समझ बैठीं। उन्होंने ऐसे भी नारे लगवाए- भुट्टो परिवार हीरो बाकी सब जीरो। यानी एक सामंत या अधिनायक वाली मानसिकता उनके भीतर आ गई थी। क्यों न आती? भुट्टो की बेटी जो थीं। इतना ही नहीं, उन्होंने मूवमेंट फॉर द रेस्टोरेशन से भी नाता तोड़ लिया, जिसे खुद ही बनाया था। उनके समर्थक हैरान होने लगे। उनकी महत्वाकांक्षा जाग गई थी। उन्हें भरम हो गया कि अब पाकिस्तान की वही खेवनहार हैं। इस कारण चुनाव प्रचार के दौरान ही अपने भाई और मां से भी उनके मतभेद हो गए।

भुट्टो को फांसी के बाद पीपुल्स पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता भूमिगत हो गए थे या फिर विदेश भाग गए थे। जब बेनजीर प्रधानमंत्री बनीं तो सारे वापस बुलाए गए। और खुद बेनजीर के सगे भाई मुर्तजा भुट्टो ने जब स्वदेश लौटने के लिए बहन से पूछा तो बेनजीर ने मनाकर दिया। कहा, मत आओ। मुझे मुश्किल हो जाएगी। बेचारे भाई की शराफत कि वो नहीं लौटा। दरअसल बेनजीर अपने भाई की लोकप्रियता से मन ही मन डरी हुई थीं।

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चुनाव के बाद जब फौज ने बेनजीर पर अपना जाल फेंका तो उसमें आसानी से फंस गईं। मां और भाई कहते रहे, बेनजीर! अभी सरकार मत बना। सेना ने धांधली की है। सीटें हमारे अनुमान से बहुत कम आई हैं। लेकिन बेनजीर ने एक न सुनी। प्रधानमंत्री बनने के लिए बेनजीर ने जिया समर्थकों और फौज से हाथ मिला लिए थे। इतना ही नहीं, जिस महमूद हारून ने भुट्टो की फांसी के आदेश पर दस्तखत किए थे उसे अपने ही राज्य सिंध का गवर्नर बना दिया था। इसके अलावा निसार खूरो, जिसने खुलेआम कहा था कि भुट्टो को पहले फांसी दो, फिर मुकदमा चलाओ, उसे अपने राज्य में पीपुल्स पार्टी का अध्यक्ष बना दिया था।

जिया के समर्थकों को रेवड़ियां बांटी जा रही थीं। पाकिस्तान बेनजीर का ये रूप देखकर सदमे में था। बीस महीने तक लोगों को लगा ही नहीं कि बेनजीर सत्ता में आ गई हैं या जिया की हुकूमत चली गई है। पिता के सारे जनतांत्रिक फैसलों को बेनजीर ने अलीगढ़ के ताले में बंद कर दिया था। वो फौज के हाथों की कठपुतली बन गई थीं। और तो और जिस भुट्टो खानदान की महिलाओं ने कभी सिर पर दुपट्टा या हिजाब नहीं डाला था, बेनजीर ने जिया शासन के कानूनों के मुताबिक सिर पर दुपट्टा डालना शुरू कर दिया।

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एक उदाहरण काफी होगा। एक दिन बेनजीर ने भतीजी फातिमा भुट्टो से पूछा, ‘मेरे और पापा जुल्फिकार अली भुट्टो के कार्यकाल में क्या अंतर था ? फातिमा भुट्टो ने उत्तर दिया, पापा के सामने पार्टी कार्यकर्ता झूठ बोलने से डरते थे। आपके सामने सच बोलते से डर लगता है।’ विडंबना थी कि दो साल में ही पाकिस्तान के इतिहास की इस नायिका को राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने भ्रष्टाचार और सिंध (बेनजीर का अपना इलाका) में दंगों के चलते छह अगस्त 1990 को बर्खास्त कर दिया। नायिका अब खलनायिका बन गई थी।

हालांकि फौज का छिपा इरादा अपने भरोसेमंद पिट्ठू नवाज शरीफ को लाना भी था। पाकिस्तान एक बार फिर आम चुनाव की दहलीज पर था। फिर एक बार फौज परदे के पीछे अपना प्रधानमंत्री लाना चाहती थी। बेनजीर की पीपुल्स पार्टी को प्रचार में बहुत परेशान किया गया। आईएसआई के प्रमुख जनरल असद दुर्रानी ने तो चुनाव के बाद खुलासा कर दिया था कि उन्होंने बेनजीर की पार्टी के खिलाफआईएसआई के बजट से छह करोड़ रुपए खर्च किए थे और नवाज शरीफ की पार्टी को प्रचार के लिए करोड़ों रुपए की सहायता दी गई थी। मतगणना में भी बड़े पैमाने पर धांधली हुई। मीडिया ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने भी फौज के इस रूप को नापसंद किया था।

अमेरिकी और सार्क देशों के पर्यवेक्षकों ने भी चुनाव में भारी गड़बड़ी की रिपोर्ट दी थी। लेकिन अब क्या हो सकता था। सचाई तो यही थी कि नवाज शरीफ प्रधानमंत्री थे और उनकी पार्टी सत्ता में थी। पाकिस्तान की राजनीति में फौजी छत्रछाया में एक और कथित लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री का प्रवेश हो गया था। बेनजीर भुट्टो अब प्रतिपक्ष की बेंच पर बैठ रही थीं। पाकिस्तान की अवाम का नसीब न जाने कौन से पिंजड़े में बंद था?

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