पाकिस्तान चुनाव विशेष: नेता जो कहता था- मैं भुट्टो को मारकर लाहौर के किसी लैम्प पोस्ट से लटका दूंगा
By राजेश बादल | Published: July 19, 2018 07:22 AM2018-07-19T07:22:37+5:302018-07-19T07:22:37+5:30
पाकिस्तान में 25 जुलाई को आम चुनाव होने हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल पाकिस्तानी के राजनीतिक इतिहास पर लोकमत समाचार के लिए विशेष शृंखला लिख रहे हैं। आज कहानी जुल्फीकार अली भुट्टो की।
नवंबर आते-आते पाकिस्तान की स्लेट पर लिखी इबारत उभर कर दिखने लगी थी। साफ था कि पूर्वी पाकिस्तान अब दुनिया के नक्शे पर एक नया देश बनने जा रहा है। लेकिन इससे पहले बहुत कुछ होना शेष था। मुक्तिवाहिनी का लक्ष्य दूर नहीं था। हिंदुस्तान के समर्थन से उसका काम आसान हो गया था। हालांकि भारत आने वाले शरणार्थियों की तादाद एक करोड़ जा पहुंची थी। अकेले त्रिपुरा में उतने शरणार्थी आए, जो उस राज्य की कुल आबादी से अधिक थे। करीब दो सप्ताह की जंग के बाद पाकिस्तान ने भारत के आगे घुटने टेक दिए। नब्बे हजार फौजियों ने हथियार डाल दिए। इसके चार दिन बाद ही थके, अपमानित और निराश याह्या खान ने गद्दी छोड़ी और जुल्फिकार अली भुट्टो ने सत्ता संभाली। एक बार फिर पाकिस्तान के लोगों ने लोकतंत्र की आहट सुनी। भुट्टो ने नए संविधान का वादा किया और 1973 में पाकिस्तान को फिर नया संविधान मिला। इसके मुताबिक सेना के अधिकार सीमित किए गए, उसे संविधान का आदर करने और सियासत से दूर रहने की बात भी कही गई। और भी कुछ नई विधायी व्यवस्थाएं इस संविधान में थीं। अनेक अच्छे काम भी भुट्टो ने किए खास तौर पर पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक बेहतरी की दृष्टि से।
कुछ समय तो ठीक चलता दिखाई दिया। लेकिन फिर भुट्टो असुरक्षा बोध से ग्रस्त हो गए। उन्होंने 1973 के संविधान में बार-बार बदलाव शुरू कर दिए। मसलन न्यायपालिका के अधिकार कुतर दिए। अन्य राजनीतिक पार्टियों पर नाना प्रकार की पाबंदियां लगा दी। कट्टरपंथी पार्टियों को खुश करने लगे। हद तो तब हो गई, जब भुट्टो इस्लाम से ऊपर अपने को मानने लगे। उन्होंने फरमान जारी कर मुसलमान की नई परिभाषा गढ़ी। इसमें अहमदियों को तो मुसलमान माना ही नहीं गया। शराब, जुआघरों और मनोरंजन केंद्रों पर बंदिश लगा दी, जबकि वो कह चुके थे कि वे खुद शराब पीते हैं। ऐसे बेतुके तालिबानी हुक्मनामों से अवाम तंग आ गई। फौज तो पहले ही खिसियाई हुई थी। भुट्टो को आशंका होने लगी कि फौज उन्हें कभी भी मार डालेगी। पीपुल्स पार्टी के संस्थापकों में से एक अब्दुल वहीद काटपर से भुट्टो ने कहा था, अब फौज मुङो नहीं छोड़ेगी और यह भी मत सोचना कि वे तुम्हें छोड़ देगी। संसद के आखिरी सत्र में उन्होंने भड़क कर कहा था, ‘मुङो पता है कि वो दरिंदे मेरे खून के प्यासे हैं। इसी बीच भुट्टो का एक फैसला उनके लिए आगे जाकर आत्मघाती साबित हुआ। भुट्टो ने पांच जनरलों की वरिष्ठता को दरकिनार कर जनरल जिया उल हक को चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ बना दिया। जिया उल हक ने कुरान की शपथ लेकर भुट्टो के प्रति वफादार रहने की कसम खाई थी। लेकिन इतिहास एक बार फिर अपने को दोहराने जा रहा था।
फौज से भुट्टो के संबंध बिगड़ते गए। अगले चुनाव नजदीक आ गए। नौ विपक्षी पार्टियों ने पीपुल्स पार्टी के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाया। इसे नाम दिया गया-पाकिस्तान नेशनल एलाइंस। इसका नेता एक पुराना फौजी असगर खान था। इस गठबंधन को जिया उल हक का समर्थन था। प्रचार शुरू हो गया। अपनी सभाओं में वे फौज को जी भरकर कोसते। दूसरी ओर असगर खान सभाओं में खुलेआम कहते कि अगर वे सत्ता में आए तो पीपुल्स पार्टी के नेताओं को यातना शिविरों में भेजेंगे और भुट्टो को खत्म कर देंगे। उनका प्रिय डायलॉग था, ‘मैं भुट्टो को अटक पुल पर फांसी दूंगा या फिर मारकर लाहौर के किसी लैम्प पोस्ट से लटका दूंगा।’ जिस देश में इस तरह चुनाव प्रचार होता हो, वहां लोकतंत्र कैसे आ सकता था? जिया से भुट्टो के रिश्ते इतने खराब हो चुके थे कि एक बार तो उत्तेजित जिया उल हक ने कहा, ‘आदमी दो हैं और कफन एक। इसके बावजूद भुट्टो की पार्टी ने 200 में से 154 सीटें जीतीं। पीएनए गुस्से में थी। हार से बौखलाकर उसने देशभर में हड़ताल, मारपीट और दंगे शुरू कर दिए। यहां तक कि लोग अपनी पक्की नौकरी छोड़कर आंदोलन में इसलिए आने लगे क्योंकि पीएनए आंदोलन करने के लिए वेतन से ज्यादा पैसा देती थी। पैसा अमेरिका से आ रहा था।
पूंजीवादी अमेरिका साम्यवादी भुट्टो को कैसे पसंद करता? बहरहाल भुट्टो सरकार फिर बनी। लेकिन फौज की गुपचुप खिचड़ी पकती रही। इसी बीच अचानक जिया उल हक ने तख्ता पलट कर दिया। एक बार फिर मार्शल लॉ।
भुट्टो को उन्हीं के वफादार सेनाध्यक्ष ने हत्या के एक बासे मामले में गिरफ्तार कर लिया था। यह 4 जुलाई 1977 की तारीख थी। जिया ने भुट्टो का संविधान रद्द कर दिया और कहा कि नब्बे दिन में फिर चुनाव कराए जाएंगे। भुट्टो परिवार ने बचाव में सारी दुनिया नापी। लंदन में भुट्टो बचाओ समिति का गठन हुआ। इसी बीच एक खुफिया रिपोर्ट में जिया को पता चला कि लोग भुट्टो की गिरफ्तारी से भड़क रहे हैं। उन्होंने भुट्टो को रिहा कर दिया। भुट्टो ने फिर प्रचार शुरू कर दिया। लेकिन सितंबर आते-आते भुट्टो फिर गिरफ्तार कर लिए गए। हत्या का मुकदमा चला और अप्रैल 1979 में उन्हें फांसी दे दी गई। पाकिस्तान में लोकतंत्र को एक और करारा झटका।