पाकिस्तान चुनाव विशेष: मंत्री बनने के बाद भुट्टो ने छोड़ी थी भारतीय नागरिकता, सैन्य तानाशाह का दिया था साथ

By राजेश बादल | Published: July 18, 2018 05:35 PM2018-07-18T17:35:17+5:302018-07-18T17:43:44+5:30

पाकिस्तान में 25 जुलाई को आम चुनाव होने हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल पाकिस्तानी के राजनीतिक इतिहास पर लोकमत समाचार के लिए विशेष शृंखला लिख रहे हैं। आज कहानी जुल्फीकार अली भुट्टो की।

pakistan general elections special by rajesh badal story of zulfiqar ali bhutto | पाकिस्तान चुनाव विशेष: मंत्री बनने के बाद भुट्टो ने छोड़ी थी भारतीय नागरिकता, सैन्य तानाशाह का दिया था साथ

पाकिस्तान चुनाव विशेष: मंत्री बनने के बाद भुट्टो ने छोड़ी थी भारतीय नागरिकता, सैन्य तानाशाह का दिया था साथ

अपने अधिकार के लिए पाकिस्तानी जनता सड़कों पर थी। हारकर अयूब खान ने पद छोड़ने का ऐलान कर दिया। ग्यारह बरस पुराने तानाशाही शासन का अंत। पर अवाम के बुरे दिन समाप्त नहीं हुए थे। पाकिस्तान को फिर तानाशाह मिला। अयूब के  बाद जनरल याह्या खान ने 1969 में गद्दी संभाली और मार्शल लॉ लगाया। अब तक पाकिस्तान में नई परंपरा शुरू हो गई थी। फौज की छत्रछाया में राजनेता पलने लगे थे। जुल्फिकार अली भुट्टो इसी श्रेणी में थे। जब अयूब ने सत्ता संभाली तो आठ साल भुट्टो उनके साथ थे। अयूब की जेबी पार्टी मुस्लिम लीग में थे। वे पहले वाणिज्य और फिर विदेश मंत्री बनाए गए। 

सन 1965 में भारत से युद्ध के बाद ताशकंद समझौते में अयूब के साथ गए थे। जब अयूब अलोकप्रिय होने लगे तो महत्वाकांक्षी भुट्टो डूबते जहाज से कूद गए। नवंबर 1967 में उन्होंने अपनी पीपुल्स पार्टी बनाई। अयूब के लिए यह झटका था। उन्होंने पाकिस्तान के लोगों को बता दिया कि भुट्टो 1958 तक भारतीय नागरिक थे। भारत में उनके नाम जमीन-जायदाद थी। जब अयूब ने भुट्टो को मंत्री बनाया तब उन्होंने पाकिस्तानी नागरिकता ली। अयूब ने खुलासा किया कि भुट्टो ने ही राजनीतिक विरोधियों को सताने वाले कानून बनवाए थे। इससे कट्टरपंथियों में भुट्टो की साख गिरी। जवाब में भुट्टो धमकी देते रहे कि ताशकंद समझौते में पाकिस्तान हारा है और वे परदे के पीछे की पोल खोल देंगे लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। मगर उन्होंने यह राज तो खोल ही दिया कि1965 के युद्ध में चीन ने जो अल्टीमेटम भारत को दिया था, उसकी जुगाड़ उन्होंने ही की थी। भुट्टो चीन के लाडले थे। अब तक देश में मुस्लिम लीग, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी,अवामी लीग के अलावा जमीयत ए इस्लामी और नेशनल अवामी पार्टी जैसे राजनीतिक दल भी जुगनू की तरह टिमटिमाने लगे थे। जानना दिलचस्प है कि इस दौर में भुट्टो पूर्वी पाकिस्तान को स्वायत्ता देने के समर्थक थे, जिसकी मांग शेख मुजीबुर्रहमान कर रहे थे। 

तानाशाह याह्या खान ने अक्टूबर 1970 में चुनाव का वादा किया। लेकिन फिर नए संविधान के नाम पर दिसंबर तक चुनाव टाल दिए। दिसंबर  चुनाव में 23 पार्टियों ने किस्मत आजमाई। शेख मुजीब की पार्टी अवामी लीग पूर्वी पाकिस्तान में और भुट्टो की पीपुल्स पार्टी पश्चिम पाकिस्तान में कामयाब रहीं। पूर्वी पाकिस्तान की आबादी अधिक थी इसलिए अवामी लीग ने छह सूत्री कार्यक्रम के सहारे राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबली की 99 फीसदी सीटें जीतीं। अवामी लीग को 300 में से 161और भुट्टो की पार्टी को केवल बयासी सीटें मिलीं। पूर्ण बहुमत बंगबंधु की पार्टी को मिला था। प्रधानमंत्री उन्हें बनना था और प्रतिपक्ष में भुट्टो को बैठना था। भुट्टो ने पलटी मारी और याह्या खान की गोद में जा बैठे। देर होते देख शेख मुजीब ने छब्बीस फरवरी,1971को चेतावनी दी कि सरकार बनाने के लिए नेशनल असेंबली की बैठक नहीं बुलाई गई तो हालात बेकाबू होंगे। दबाव में याह्या ने 3 मार्च को असेंबली की बैठक ढाका में बुलाने का ऐलान तो कर दिया लेकिन परदे के पीछे पटकथा कुछ और ही लिखी जा चुकी थी। 

28 फरवरी को भुट्टो ने बैठक का बायकॉट करने की घोषणा कर दी। इसके बाद याह्या खान ने बैठक रद्द कर दी। विरोध में 7 मार्च से पूर्वी पाकिस्तान में जबरदस्त आंदोलन शुरू हो गया। सोलह मार्च को याह्या इस्लामाबाद से ढाका गए और बंगबंधु से चर्चा प्रारंभ की। इधर चर्चा जारी थी, उधर बंगाल के फौजी शासक और बलूचिस्तान के कसाई जनरल टिक्का खान ने पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम शुरू कर दिया। नतीजतन दंगे भड़क उठे। लाखों मारे गए। अनगिनत युवतियां दुष्कर्म का शिकार बनीं। 

21 मार्च को भुट्टो और याह्या बंगबंधु शेख मुजीब से चर्चा के लिए ढाका गए, जो असफल रही। पच्चीस मार्च को शेख मुजीब और अवामी लीग के नेता जेल में डाल दिए गए। इसके बाद तो फौजी हिंसा ने लोकतंत्र के लिए लड़ रहे लोगों पर जो कहर ढाया, इतिहास में मिसाल नहीं मिलती। अठ्ठाइस मार्च को शेख मुजीब ने आजाद बांग्लादेश सरकार का ऐलान कर दिया। बारह अप्रैल को छह सदस्यों की सरकार बन गई, मुक्तिवाहिनी का गठन हो गया और बांग्लादेश रेडियो ने प्रसारण आरंभ कर दिया। सोलह जुलाई को कलकत्ता में बांग्लादेश का पहला दूतावास खुल गया। वहां उच्चायोग ने पाकिस्तान से नाता तोड़ लिया था। आजाद देश के लिए सड़कों पर संघर्ष हो रहा था। भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नैतिक समर्थन दिया और संसद में बांग्लादेश की मदद का प्रस्ताव पास हुआ। पाकिस्तान ने लोकतंत्र बहाली का एक और अवसर खो दिया। वोट की ताकत कैदखाने में थी। देश बंटवारे की राह पर चल पड़ा था।

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