खबरीलाल का ट्रैवल ब्लॉगः पूरा गांव लेकर गंगा सागर की यात्रा करने वाली बस

By खबरीलाल जनार्दन | Published: April 28, 2018 03:40 PM2018-04-28T15:40:52+5:302018-04-28T16:34:30+5:30

30 दिन घर से बाहर। नदी-नारा-चपाकल जहां दिख जाता, वहीं बारात जम जाती। छत से यूरिया-सिमेंट की बोरियों में भरे उपले उतरते, लकड़ियां उतरतीं।

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खबरीलाल का ट्रैवल ब्लॉगः पूरा गांव लेकर गंगा सागर की यात्रा करने वाली बस

30 दिन घर से बाहर। नदी-नारा-चपाकल जहां दिख जाता, वहीं बारात जम जाती। छत से यूरिया-सिमेंट की बोरियों में भरे उपले उतरते, लकड़ियां उतरतीं। पंप लगाने वाले स्टोव उतरते। मिट्टी के तेल वाली गैलन उतारी जाती। दो स्पेशल लोग थे, उनके पास सिलेंडर के ऊपर ही सेट चूल्हे वाले पेट्रोमैक्स थे, वे उतरते और अलग कोने में लगते। ये सब छत से नीचे टेकाने का जिम्मा मेरा होता। इसलिए मैं सबका प्रिय रहा पूरी यात्रा में।

यात्रा के शुरू होने के करीब चार महीने पहले

रामचंद्र तिवारी के पास एक टूटे कैरियर, गद्दे खराब हो चुकी गद्दी, जंग लगी पंखियों और जगह-जगह टायर से बाहर झांकते ट्यूब वाली, बिना घंटी की साइकिल थी। वे बीते कुछ दिनों से गांव में रोज आने लगे थे। आते, देश-काल की बातें करते, कोई ना कोई खाने को कह ही देता, तो खाना खाते, फिर सरौता से कटी सुपाड़ी चबाते चले जाते। वे कुछ न कहते, लोगों से कुशल-मंगल लेते, हंठी-ठिठोली करते और फिर पान दबाते अपनी साइकिल की पायडिल घुमाते निकल जाते।

बस अब वो गांव के जवान लोगों की नजर में चढ़ने ही वाले थे कि उन्होंने गंगा सागर की तीर्थ यात्रा के महत्व और महात्मय के बारे में बात करनी शुरू कर दी। रोज आते और कहते, 'सब तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार'। जैसे-जैसे नवंबर-दिसंबर की सर्दी चापते जाती वे गांव के कौड़े (धधकती आग का छोटा टीला, जिसके आसपास पांच-आठ लोग बैठकर आंच सेकते हैं) अधिक समय बिताने लगे। एक-दो बार खिस‌ियाए लड़कों ने प्रकाल-दूरी घोंप कर उनकी साइकिल पंचर कर दी। लेकिन वे नहीं माने। 1 जनवरी आते-आते उन्होंने गांव के 5 बूढ़ों और दो प्रौढ़ महिलाओं को यह समझा ही दिया कि इस बार गंगा सागर मिस कर दिए तो जीवन व्यर्थ है। मैंने भी उनसे वही कला सीख ली। मैंने आजी और चाची को समझा दिया कि मेरे बगैर गए तो भी जीवन व्यर्थ हो जाएगा।

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यह काम उन्होंने बस मेरे ही गांव में नहीं किया था। गोट्टी से गोट्टी सेट कर के आस-पड़ोस के करीब 10-12 गांवों से 2 बस भरकर सवारियां इकट्ठा कर लीं। दोनों बसों में सीट से 3 तीन आदमी ज्यादा के सट्टा-बयाना ले लिए। 1 जनवरी को बस आकर इमली के पेड़ के नीचे लगी तो पता चला मुझे गैलेरी और चढ़ने-उतरने की सी‌ढ़ियों पर अगले एक महीने काटने हैं। यही हाल अपने गहंवा लोगों के दवाब में उतना ही पैसा देकर कुछ न कह पाने वाले बसंतू का भी था।

गंगा सागर की यात्रा शुरू हुई

बस आकर खड़ी हो गई है। लेकिन अब भी ढूढ़ी-तिलवा-ढूंढा-लेड़ुआ-चूड़ा-गुड़-लाई (गांव के फास्ट-फूड) वाली बोरी फाइनल नहीं हो पाई है। कौन जाने बस कहां रुकेगी कहां नहीं। रामचंद्र प्रोफेशनल हैं। गाड़ी सुबह 4 बजे लोगों के दरवाजे पर तान दे रहे हैं। ना ज्यादा दिखे ना ज्यादा किच-किच हो। तीन-चार बार बस के ऊपर-नीचे करने के बाद आदमी कह ही दे रहा था- अच्छा चलो, अब जो होगा भगवान हैं ही, उन्हीं के लिए तो चल रहे हैं।

यही कोई 50 लोग। निकल पड़े करीब 1000 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी में करीब 90 किलोमीटर समुंदर के अंदर बसे कपिल मुनि के टापू पर मकर संक्रांति के स्नान के लिए। लेकिन ये 1000 किलोमीटर सीधे नहीं थे। रस्ते में जितने काशी विश्वनाथ, इलाहाबाद संगम, बैजनाथ धाम, बोध गया, कलकत्ते की काली मइया पड़ें, सबका फुल पैकेज था। दूसरी ओर बस में रामचंद्र तिवारी और ड्राइवर को छोड़ दें तो सबसे बुद्ध‌िमान शख्स को बनारस की गलियों में छोड़ दो पांच दिन से पहले रॉबर्ट्सगंज ना पहुंच पाए। एक जने कलकत्ता में छूटे थे पंद्रह दिन बाद जंघिया-गंजी में घर लौटे थे।

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इस कौम के साथ जब आपकी महीनेभर वाली यात्रा शुरू हो और आप इकलौते बच्चे हों जो झट से बस की छत पर चढ़ जाता हो। फटाफट सारे सामान उतारकर उसी आदमी को थमा देता हो जिसका सामान है, उसके बाद का सफर अब पूरी तरह काल्पनिक लगता है। काश कि ऐसा दोबारा हो।

चार-पांच दिन खिड़की से खेत-खलिहान झांकते गुजरे

बहरहाल, हम चले। पहले दिन पूरे दिन और पूरी रात बस चली। बस कहीं-कहीं पैर सीधे करने के लिए मिनट-दो मिनट रुकी। हमारे पास इतनी लिक्वीडिटी नहीं होती कि हम हाईवे किनारे के ढाबों पर रुकें और उनका खाना वहन कर पाएं। हम बस कुछ ठेले वाले चाय के दुकानदारों के पास रुकते। एक चाय और फेन खाकर आगे बढ़ जाते। इसलिए हम महीने भर का खाना साथ लेकर आए थे। बस हमें कोई पानी वाली जगह चाहिए होती, जहां बीच में कोई आकर बिल-बिलाए नहीं।

ऐसी जगह मिलते ही सभी ग्रुप अपने अड्डे जमा लेते। कुछ लोग आस-पड़ोस से सब्जियां खरीद लाते। कुछ लोग महिलाओं के नहाने और कपड़े बदलने का इंतजाम कर देते। कुछ लोग ईंट से चूल्हा तैयार करने लगते। तब तक डिब्बा लेकर खेत में जाना अलाउड था, तो कुछ लोग उधर निकल जाते। कई बार इसी बीच मुझे सूई में धागा डालने जैसे महीन काम भी करना होते। क्योंकि रास्ते में कपड़े भी सिले जाते और स्वेटर भी।

चार-पांच दिन खिड़की से खेत-खलिहान झांकते गुजर गए। एक-दूसरे का नाम जानते गुजर गए। नई दोस्तियां बनते गुजर गए। लेकिन ऐसा होते ही माथे पर त्योतियां चढ़ने लगीं। जब नहाने-खाने के लिए रुकते तो डिफरेंसेस खुलकर सामने आने लगे। आजी-चाची कुछ खास लोगों की मदद करने से मुझे मना करने लगीं। मैं सबका काम करता तो सब मुझे थोड़ा-थोड़ा खिलाते। वाकई हर दूसरे चूल्हे से बना खाना पिछले वाले से ज्यादा स्वादिष्ट होता। लेकिन इस पर सेंसर की कैची चलने लगी। कई बार मैं भूखें ताकता रह गया और मेरे सामने लजीज ढूंढ़ा खाकर खत्म कर दिया गया और मुझे एक भेली भी नहीं मिली।

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ऐसा नहीं था कि यह डिफरेंसेस बस मुझे लेकर हो रहे थे। वे इस तरह के भी हुए कि अब गाड़ी यहां से आगे नहीं जाएगी, बुलाओ तिवारी को। हम जल्दी नाराज होते हैं तो जल्दी गाली-गलौज भी शुरू कर देते हैं। तिवारी जी ने गालियां भी खाईं, पर उनके पैसे फंसे हुए थे और प्रतिष्ठा भी, सो सबकुछ सुनकर भी वे आगे बढ़े।

गंगा सागर पहुंचते-पहुंचते हम थक गए। कलकत्ता में महज 75 रुपये में पूरा शहर घुमाने वाली पीली टैक्सी लेकर सबलोग फिर से खुश हो रहे थे तो मैं बदबू से परेशान था। किसी महानगर से मरा पहला वास्ता था। यात्री बसों के रुकने की जो पार्किंग थी वे बदबू से भरी थी। मैंने पीने के पानी और बदबू से परेशान। तब तक हम खरीदकर पानी पीने में विश्वास नहीं करते थे। और महानगरों के म्यूनिसिपालिटी के पानी भले बाकी लोग संतोष कर लें, लेकिन वो मेरे गले न उतरे।

गंगा सागर में भगवान दर्शन से ज्‍यादा गंदगी दिखी मुझे

मैंने उम्मीद की कि गंगा सागर पहुंच कर जरूर कुछ बहुत मजेदार होने वाला है। लेकिन वहां उमड़े जन सैलाब में मुझे कुछ ही चीजें दिखीं। गंदगी का सैलाब और भीख मांगते कोढ़ी। मेरा ध्यान बार-बार इन्हीं चीजों पर जाता। वहां सबसे ज्यादा आनंददायक चीज मेरे लिए स्टीमर की यात्रा और बंगाल की खाड़ी की हल्की उफान भरती लहरें थीं। तीर्थ के मायने तब मुझे वैसे भी समझ नहीं आते। सिवाय बोध गया के आलीशान मंदिरों को निहारने के।

बाकी तीर्थ स्‍थलों पर मची लूट से मुझे दोगुना चिढ़ होती। रस्ते में हुई घटनाओं ने तीर्थ से मन उचाट दिया था। मेरी ही तरह अपने पिता के साथ आई मेरी एक हम उम्र लड़की भी अब ड्राइवर और तिवारी जी से ज्यादा बात करने लगी थी।

वापसी में एक यात्री का बस से बिछड़ना

एक चचा उसी टापू पर बिछड़ गए। तिवारी जी ने रस्सी बांधी थी। सबको उस रस्सी को पकड़े रहना था। उन्होंने अपनी शर्ट भी उतारकर एक डंडे में ऊपर कर रखी थी ताकि उसे देखकर ही आगे बढ़ा जाए। लेकिन चचा किसी और गोल का साथ पकड़ लिए। हमने आधा पहर वही ठहरकर माइक में नाम-गाम, उनकी बूढ़ी पत्नी से वो सब कहवाया जिसे सुनकर वो कहीं से भी लौट आते, लेकिन उन्होंने सुना ही नहीं।

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अब उनकी बूढ़ी पत्नी कभी 'अरे मुरारी हो' कहकर कभी बेहोश हो जातीं तो कभी उनको दांत-काठ (दांत चिपकना) लग जाते। पूरी बस एक बार फिर से बूढ़ा की वजह से जुड़ गई। सब उनका खयाल रखते, कहते कि मुरारी आएंगे। बस वो निकल पड़े हैं, कल हमारे साथ होंगे। यात्रा की उल्टी-गिनती शुरू हो गई थी। सारे रंजिशो-गम छंट रहे थे। हम फिर से रास्तों में वैसे ही रुकते, बनाते-खाते आगे बढ़ते। जिनकी बोरियों से सामान कम हो रहे थे वे उनमे धार्मिक किताबें, मूर्तियां भरते जाते।

एक दो मौके आए जब तिवारी ने कहा अब बस पूरी रात कहीं नहीं रुकेगी, सबलोग अपने कान-नाक से सोने की चीज निकाल के कहीं रख लें। कई लोगों निकलकर पूरी रात फोफी-झुमका मुंह में रखे रहा। एक झटका लगा, बस के पीछे का शीशा टूट गया। ड्राइवर ने स्पीड और बढ़ा दी, शीशे से एक-दो लोगों को खरोंच आई और खून भी निकला पर किसी ने बस रोकने को नहीं कहा।

एक जगह साइकिल वाला बस से सट कर गिर गया। वहां बस रुकी, तीन-चार घंटे रुकी रही। लेकिन हम नेक काम से निकले थे तो कोई अनहोनी हमारे साथ नहीं हुई। हचकोले खाते करीब 29 दिन बाद जब मैं घर पहुंचा तो लगा मैं इसका इंतजार कर रहा था।

लेकिन अब लगता है वैसी कुछ और यात्राओं का मैं इंतजार रहा हूं। यह यात्रा बस इतनी ही नहीं थी। फिलहाल याद इतनी ही आ रही है। आई थ‌िंक 2005-06 की यात्रा है ये। तिवारी जी को डेट समेत याद होगी।

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