देश में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए नियमित चुनाव होते हैं, यह भारतीय लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि है लेकिन इनमें जो अनाप-शनाप खर्च होता है, वह ही भ्रष्टाचार की असली जड़ है.
चुनाव लड़ने के नाम पर नेता बेशुमार पैसा जुटाते हैं. इतना जुटा लेते हैं कि यदि वे चुनाव हार जाएं तो भी पांच साल तक उनका ठाट-बाट बना रहता है.
कई नेता एक ही चुनाव में अपनी कई पीढ़ियों का इंतजाम कर लेते हैं. यदि वे चुनाव जीतकर सरकार बना लेते हैं तो वे अपने धनदाताओं पर मेहरबानियां करते हैं. उनके लिए सारे कानून-कायदे ताक पर रख देते हैं.
वे विदेशी कंपनियों से साठगांठ करते हैं ताकि उस भ्रष्टाचार का सुराग भी न लगे. ऐसे में अफसर पीछे क्यों रहें? जब नौकरशाही के बड़े पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार करते हैं तो चपरासी स्तर तक के सभी कर्मचारियों को रिश्वतखोरी का लाइसेंस मिल जाता है.
भ्रष्टाचार के बिना आज चुनावी राजनीति हो ही नहीं सकती. इस पर रोक लगाने की मांग पिछले दिनों हुई सर्वदलीय बैठक में की गई. लोकसभा उम्मीदवार 40 लाख से 70 लाख रु . और विधानसभा उम्मीदवार 22 से 54 लाख रु . तक खर्च कर सकता है लेकिन पार्टियां चाहें तो एक-एक उम्मीदवार पर करोड़ों रु. खर्च कर सकती हैं. सभी पार्टियां करती हैं, अरबों रु . खर्च. औसत उम्मीदवार लोग चुनाव आयोग को जो रपट देते हैं, उसमें वे अपना खर्च सीमा से आधा ही दिखाते हैं.
1971 में दिल्ली के लिए लोकसभा का चुनाव हारे हुए जनसंघी उम्मीदवार कंवरलाल गुप्त ने जीते हुए कांग्रेसी उम्मीदवार अमरनाथ चावला के खिलाफ ज्यादा खर्च का मुकदमा चलाया था.
गुप्ता जीत गए, तब कानून में संशोधन करवाकर यह प्रावधान कर दिया था कि कोई पार्टी, या कोई संगठन या कोई मित्र किसी उम्मीदवार पर कितना ही खर्च करे, वह चुनाव-खर्च नहीं माना जाएगा. यह खर्च ही भारत में भ्रष्टाचार का वट-वृक्ष बन गया है.