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भाजपा को चाहिए एक बड़ा बंगाली चेहरा, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: March 10, 2021 15:54 IST

राज्य में विधानसभा चुनाव 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच आठ चरणों में होंगे. मतों की गिनती 2 मई को होगी.

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ठळक मुद्देबंगाली चेहरे की खोज में भारतीय जनता पार्टी को कई दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं. पहला दांव भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली पर लगाया था.भाजपा ने विख्यात अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती पर डोरे डालना शुरू किया.

चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से जो समझ निकल कर आती है, उसके अनुसार आज की तारीख तक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल सकता है और भाजपा का असाधारण उछाल सौ सीटों के आसपास रुक सकता है. लेकिन, यह आकलन बहुत शुरुआती किस्म का है.

पश्चिम बंगाल के चुनाव में एक बड़े और प्रतिष्ठित बंगाली चेहरे की खोज में भारतीय जनता पार्टी को कई दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं. उसने पहला दांव भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली पर लगाया था. क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की राजनीति में गांगुली को अमित शाह के बेटे जय शाह के साथ संपर्क में रहना पड़ता है. इसी का लाभ उठाते हुए भाजपा ने सौरभ के साथ बातचीत के चैनल खोले.

लेकिन, अभी तक ‘बंगाल टाइगर’ और ‘प्रिंस आफ कोलकाता’ के नाम से मशहूर इस शानदार खिलाड़ी ने भाजपा के प्रस्ताव पर हां नहीं की है. एक बात यह भी है कि उनके तार पहले से ममता बनर्जी के साथ भी जुड़े हुए हैं. इसके बाद भाजपा ने विख्यात अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती पर डोरे डालना शुरू किया.

मिथुन की तरफ से भाजपा को अधिक सकारात्मक रुझान दिखाई पड़े. उन्होंने संघ के सरसंघचालक से मुलाकात की, और मोदी से मिलने की इच्छा भी जताई. भाजपा की इच्छा थी कि जब सात मार्च को मोदी की चुनावी रैली हो, तो मंच पर कोई न कोई बंगाली चेहरा दिखाई पड़े. मिथुन को मंच पर लाकर भाजपा अपने मंसूबे में कामयाब रही.

बंगाल में चुनाव आठ चरणों में होगा. इसी लिहाज से राजनीतिक दलों ने अपनी रणनीति बनाई है. भाजपा ने पहले दो चरणों के लिए ही अपने उम्मीदवारों की घोषणा की है. चुनावी जमीन की जानकारी रखने वाले पंडितों की राय है कि ममता बनर्जी की राहत-योजनाएं अच्छा काम करने वाली साबित हुई हैं, लेकिन केवल यह उन्हें चुनाव नहीं जिता पाएगा.

मतदाता एक सीमा के बाद केवल योजनाओं के आधार पर वोट देने के लिए तैयार नहीं होते. इस बार वे परिवर्तन के लिए वोट कर सकते हैं. 1977 में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ा था, तो उस समय उसके पास हर बूथ पर तैनात करने के लिए पूरे कार्यकर्ता भी नहीं थे. इसी तरह जब ममता ने मार्क्सवादियों का तख्ता पलटा था तो उनके पास भी कम्युनिस्टों जैसा संगठन नहीं था.

इस बार भाजपा के पास भी तृणमूल जैसा संगठन नहीं है. लेकिन जनता को जिसे वोट देना होगा, उसे दे देगी. वह यह परवाह नहीं करेगी कि जिसे वोट दे रही है, उसकी सांगठनिक ताकत कितनी है. बंगाल की चुनावी राजनीति इस समय एक पहेली जैसी बनी हुई है.

चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से जो समझ निकल कर आती है, उसके अनुसार आज की तारीख तक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल सकता है, और भारतीय जनता पार्टी का असाधारण उछाल सौ सीटों के आसपास रुक सकता है. लेकिन, यह आकलन बहुत शुरुआती किस्म का है. बाजी पूरी तरह से पलट सकती है, और ममता बनर्जी को भाजपा के हाथों पराजय का सामना भी करना पड़ सकता है. नतीजा दोनों में से कोई भी हो, उससे राष्ट्रीय राजनीति गहराई से प्रभावित होगी.

अगर ममता की वापसी हुई, तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने पहले से जारी संकट में और ज्यादा फंस जाएगी. दिल्ली को तीन तर$फ से घेरने वाले किसान संगठन और भी दृढ़ता से तीनों कृषि $कानूनों की वापसी की मांग करते हुए दिखेंगे. न केवल यह, बल्कि उन्हें मिलने वाले समर्थन की मात्रा और क्वालिटी में भी जबर्दस्त इजाफा होगा.

लेकिन, अगर भाजपा ने बंगाल का मोर्चा जीत लिया तो हालात एक बार फिर नरेंद्र मोदी के पक्ष में झुक जाएंगे. उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ होगा. उनकी सरकार एक बार फिर देश के सामने अपनी ऊंची राजनीतिक वैधता का दावा कर सकेगी. उस सूरत में किसान आंदोलन को और साथ-साथ विपक्षी दलों को भी अपनी दीर्घकालीन रणनीतियों पर पुन: विचार करना पड़ सकता है.

भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव जीतेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं थी. ठीक उसी तरह बंगाल चुनाव जीतने की भी कोई गारंटी नहीं है. एक तरह से यह ज्यादा मुश्किल है. चुनौतियां तीन तरह की हैं. पहली, भाजपा को अपना लोकसभा का प्रदर्शन विधानसभा में दोहराने की गारंटी करनी होगी. मुश्किल यह है कि प्रदेशों में भाजपा के वोट लोकसभा के मुकाबले दस-बारह फीसदी गिर जाते हैं.

उत्तर प्रदेश ही इस नियम का अपवाद है. क्या दूसरा अपवाद पश्चिम बंगाल बनेगा? दूसरी, कांग्रेस और माकपा के गठजोड़ को चुनावी लड़ाई तितर$फा बनाने से रोकना होगा. अगर ऐसा न हुआ तो ममता बनर्जी को तीसरी बार शपथ लेने से भाजपा नहीं रोक पाएगी. तीसरी, किसी तरह ममता के बराबर मुख्यमंत्री का चेहरा न होने की कमी की भरपाई भाजपा को करनी होगी. दिक्कत यह है कि स्वयं भाजपा भी नहीं जानती कि ऐसा वह कैसे कर पाएगी.  

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