आलोक मेहता का ब्लॉगः विषैली भाषा के जहर से राजनीति को बचाए जाने की जरूरत

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 19, 2020 06:30 IST2020-01-19T06:30:37+5:302020-01-19T06:30:37+5:30

राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हों या समर्थक, यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कल कौन किसके साथ बैठा होगा या उसी के विरोध में खड़ा होगा. लेकिन उसे गालियों और आरोपों के नारे लगाने हैं.

Alok Mehta's blog: Politics need to be saved from poison of language | आलोक मेहता का ब्लॉगः विषैली भाषा के जहर से राजनीति को बचाए जाने की जरूरत

आलोक मेहता का ब्लॉगः विषैली भाषा के जहर से राजनीति को बचाए जाने की जरूरत

हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने लिखा था ‘हिंदुस्तानी महासागर के किनारे पर मैल जमा है. उस मैल से जो गंदे हो गए हैं, उन्हें साफ होना है. बाकी करोड़ों लोग तो सही रास्ते पर ही हैं.’ इस समय भारतीय राजनीति का यही हाल है. करोड़ों लोग आपसी सद्भाव और शांति से जीना और अच्छे तरीकों से सफल होना चाहते हैं. उन्हें सड़कों की गंदगी की तरह समाज और राजनीति में गंदी भाषा, कटुता और लड़ाई से उबकाई आ रही है. राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हों या समर्थक, यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कल कौन किसके साथ बैठा होगा या उसी के विरोध में खड़ा होगा. लेकिन उसे गालियों और आरोपों के नारे लगाने हैं.

लोकतंत्न में असहमति, विरोध की पूरी गुंजाइश होती है. आजादी से पहले भी आंदोलनों के दौरान पारस्परिक मतभेद, अंग्रेजों से लड़ने के तरीकों पर विरोध होता था. इमरजेंसी से पहले जयप्रकाश के आंदोलन में इंदिरा सरकार के विरुद्ध देश भर में आवाज उठी, इंदिरा गांधी ने नेताओं को जेल भेजा या फिर जनता सरकार ने इंदिरा गांधी और समर्थकों को जेल भेजने का इंतजाम किया. लेकिन जेल भुगतने वाले नेताओं का एक भी बयान ऐसा नहीं मिलेगा, जिस तरह के जहरीले, गंदी भाषा वाले अथवा अनर्गल आरोपों के बयान आजकल सार्वजनिक क्षेत्नों के नेता, समर्थक लगा रहे हैं. हत्यारे, चोर, देशद्रोही, दुश्मन, पाकिस्तानी, गोड़से की संतान, जेल में चक्की पिसवाने, गोलियों से उड़ाने तक के आरोप और धमकी का इस्तेमाल हो रहा है. पराकाष्ठा यह हो जाती है कि चुनावी टीवी कार्यक्र मों में नेताओं के सामने समर्थक भिड़ जाते हैं या प्रवक्ता कहलाने वाले खुद एक-दूसरे पर लपककर पिटाई करने लगते हैं. क्या इसी के लिए गांधी ने स्वराज दिलाया है?

गांधीजी तो गीता के इस ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते थे कि श्रेष्ठजन यानी समाज में ऊंचा स्थान पाए लोग जिन मूल्यों और व्यवहार को अपनाते हैं, सामान्य लोग उन्हीं का अनुकरण करते हैं. आश्चर्य तो तब हो रहा है जब राजनीति के साथ कूटनीति, साहित्य, संस्कृति, धर्म, सिनेमा से जुड़े नामी लोग अपशब्दों के साथ समाज में हिंसा भड़काने वाले बयान देने लगे हैं.

 यदि सत्ता की राजनीति करने वाले दल सांप्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष भड़काने का प्रयास करते हैं तो उसे रोकने के बजाय तथाकथित शिक्षाविद, अंग्रेजीदां लेखक-पत्नकार समूह स्वयं आग में घी डालने का प्रयास करते दिखने लगे हैं. आजादी का आंदोलन विदेशी शासन के खिलाफ था. क्या लोकतंत्न में अपनी ही चुनी सरकार, संसद, सेना, अदालत के विरु द्ध उसी भाषा और उग्र रूप में विरोध उचित कहा जा सकता है? या सत्ताधारी वैसी ही कार्रवाई कर सकते हैं? 

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प या ब्रिटेन के प्रधानमंत्नी बोरिस की नीतियों का भी विरोध होता रहा है, लेकिन क्या इन देशों के जिम्मेदार नेता हमारे लोगों की तरह अनर्गल आरोप या भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं? चिंताजनक स्थिति यह है कि संसद और विधानसभाओं के सदनों में शोर-शराबा, हंगामा हिंसात्मक सा हो गया है. उनकी गरिमा की रक्षा के लिए संयुक्त बैठकों, समारोहों में संकल्प लिए जाते रहे, लेकिन व्यवहार में नहीं अपनाए गए. ढाक के वही तीन पात जैसी स्थिति है. 

राजनीति का अपराधीकरण या अपराधों का राजनीतिकरण होने से लोकतंत्न खोखला होने लगेगा. यह कितना हास्यास्पद और एक तरह से शर्मनाक भी है कि गंभीर भ्रष्टाचार, हत्या तक के मामले में जमानत पर जेल से आने वाले नेता किराये पर लाए गए लोगों से जय-जयकार करवाते हुए फूलमालाएं पहनकर उस तरह जुलूस निकालते हैं, जैसे स्वतंत्नता आंदोलन के सेनापति हों. गांधीजी जिसे धर्म कहते थे वह वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों पर आधारित था, उसे व्यक्तिगत ईश्वर आराधना तक सीमित नहीं रखा गया था. उनका नाम लेकर राजनीति करने वाले उनके आदर्शो वाली संस्कृति, व्यवहार भूलते जा रहे हैं.

Web Title: Alok Mehta's blog: Politics need to be saved from poison of language

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