राजेश बादल का ब्लॉग: सियासी प्रतिद्वंद्विता में तंत्र निशाने पर क्यों हो?
By राजेश बादल | Published: January 11, 2023 03:35 PM2023-01-11T15:35:58+5:302023-01-11T15:37:26+5:30
एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का लोकतंत्र के एक स्तंभ पर खुल्लमखुल्ला आरोप लगाना कितना शालीन है? उनसे यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि एक पूर्व मुख्यमंत्री को इस मामले में राज्य के मुख्यमंत्री या गृह मंत्री के पास क्यों नहीं जाना चाहिए था.
रविवार को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लखनऊ में एक अजीबोगरीब बर्ताव किया. वे अचानक पुलिस मुख्यालय पहुंचे. पार्टी प्रमुख अपने आईटी सेल प्रमुख की गिरफ्तारी के विरोध में गए थे. कुछ पुलिसकर्मियों ने शिष्टाचारवश उनसे चाय के लिए पूछ लिया. पूर्व मुख्यमंत्री ने इसका बड़ा बेतुका उत्तर दिया. उन्होंने कहा, "हम यहां की चाय नहीं पिएंगे. हम अपनी चाय बाहर से लाएंगे. कप आपका ले लेंगे. हम नहीं पी सकते. आप जहर दे दोगे तो. हमें आप पर भरोसा नहीं है." पुलिसकर्मी सन्न रह गए.
उत्तर प्रदेश जैसे विराट राज्य का मुख्यमंत्री रहा राजनेता इस भाषा में बोल रहा था. एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का लोकतंत्र के एक स्तंभ पर खुल्लमखुल्ला आरोप लगाना कितना शालीन है? उनसे यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि एक पूर्व मुख्यमंत्री को इस मामले में राज्य के मुख्यमंत्री या गृह मंत्री के पास क्यों नहीं जाना चाहिए था. यदि उनकी ओर से सकारात्मक उत्तर नहीं मिलता तो राज्यपाल से समय लेकर क्यों नहीं मिलना चाहिए? पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते वे जानते रहे होंगे कि रविवार को पुलिस मुख्यालय में आपात ड्यूटी के अफसर ही मौजूद रहते हैं.
बाकी अधिकारी साप्ताहिक अवकाश पर रहते हैं. फिर छुट्टी के दिन इस हरकत का क्या अर्थ लगाया जाए? तीन दशक पुरानी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव को इस प्रसंग में यकीनन परिपक्वता का परिचय देना चाहिए था. यहां दो सवाल उभरते हैं. एक तो यह कि अखिलेश यादव का यह कथन कितना उचित और लोकतांत्रिक है? वे बरसों तक मुख्यमंत्री रहे हैं. सूबे का पुलिस प्रशासन उनको सैल्यूट करता रहा है. मुख्यमंत्री राज्य की विधायिका का प्रमुख होता है. उसकी सरकार की नीतियां और कार्यक्रम कार्यपालिका अमल में लाती है.
क्रियान्वयन करने वाली एक एजेंसी पुलिस भी होती है. ऐसे में कार्यपालिका के एक बड़े अंग पर अविश्वास करना कितना जायज है? दूसरे राजनीतिक दल और राजनेताओं से उनकी सियासी होड़ हो सकती है. वे उन पर अभद्र और अमर्यादित भाषा में तंज करें तो एक बार चलेगा क्योंकि वे सिर्फ पांच साल के लिए निर्वाचित होते हैं. संवैधानिक ढांचे में उनकी उम्र की सीमा यही है. चाहे वे पक्ष में हों या विपक्ष में लेकिन कार्यपालिका के सारे हिस्से लोकतंत्र के स्थायी हिस्से हैं. खासतौर पर पुलिस जैसा अनुशासित महकमा प्रदेश की कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार होता है.
यदि निवर्तमान मुख्यमंत्री उस पर आशंका प्रकट करता है कि वह उनकी हत्या की साजिश में शामिल हो सकता है और उनकी चाय में जहर मिला सकता है तो मामला बेहद गंभीर हो जाता है. शिखर राजनेता के रूप में और संविधान के रक्षक की भूमिका निभा चुके अखिलेश यादव से इस अपरिपक्वता की अपेक्षा नहीं की जा सकती. दूसरा प्रश्न यह है कि जब अखिलेश यादव कई साल तक राज्य के मुखिया रहे तो क्या उस कालखंड में उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों की चाय में जहर मिलाने का काम अपने प्रदेश की पुलिस को सौंपा था?
यह उनकी लोकतांत्रिक मानसिक संरचना में कैसे शामिल हुआ कि कार्यपालिका के एक तंत्र का दुरुपयोग अपने विरोधियों को निपटाने के लिए किया जाना चाहिए. बहुत संभव है कि पुलिस बल का इस तरह इस्तेमाल किया गया हो या वह राजनीतिक जंग का एक हथियार बन कर रह गई हो. इस बात में आंशिक तौर पर सच्चाई हो सकती है क्योंकि उत्तर प्रदेश में पुलिस की ताकत के बेजा इस्तेमाल के आरोप अक्सर लगते रहे हैं. इस स्थिति में कार्यपालिका पर भी सवाल खड़े होते हैं. उसे राजनीतिक शतरंज का एक मोहरा क्यों बन जाना चाहिए?
जब तंत्र सरकार के अनुचित और गलत आदेशों में भागीदार हो जाता है तो वह भी एक अपराध के लिए जिम्मेदार होता है. पुलिस प्रशासन के आला अधिकारियों के लिए यह समझदारी और लोकतांत्रिक दायित्व निभाने का समय है. भारतीय राजनीति में वैसे अखिलेश यादव की यह पहली अमर्यादित टिप्पणी नहीं है, जिसमें एक अंग ने दूसरे पर इतना अविश्वास किया हो. कुछ और राजनेता भी इस तरह का आचरण करते रहे हैं. सरकार से हटते ही राजनीतिक दलों से जुड़े लोग पुलिस, राज्य प्रशासन तथा तंत्र के एकदम जैसे खिलाफ हो जाते हैं.
उन्हें लगता है कि प्रतिपक्षी दल के सत्ता में आते ही समूचा तंत्र उनके विरोध में आ गया है और वे कार्यपालिका पर अपनी तलवार भांजने लगते हैं. मैंने एक दौर वह भी देखा है कि पुराने राजनेता जब पद पर नहीं रहते थे तो भी प्रशासनिक अमला उन्हें पूरा सम्मान दिया करता था.
उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी, राजस्थान में मोहन लाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी और भैरों सिंह शेखावत, मध्य प्रदेश में श्यामा चरण शुक्ल, मोती लाल वोरा, आरिफ बेग, होमी दाजी और कैलाश जोशी, महाराष्ट्र में मधु दंडवते, नितिन गडकरी और शरद पवार, बिहार में जगजीवन राम और सत्य नारायण सिन्हा, ओडिशा में तारकेश्वरी सिन्हा और बीजू पटनायक, पंजाब में सुरजीत सिंह बरनाला, हरियाणा में भगवत दयाल शर्मा, छत्तीसगढ़ में पुरुषोत्तम लाल कौशिक, बंगाल में ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य, इंद्रजीत गुप्त, असम में गोपीनाथ बोरदोलोई और तरुण गोगोई, आंध्र प्रदेश में नीलम संजीव रेड्डी और एन. टी. रामाराव, तमिलनाडु में सी. एन. अन्नादुरई, के. कामराज, एम. जी. आर. और केरल में ई.एम. एस. नम्बूदिरीपाद तथा करुणाकरण जैसे अनेक राजनेताओं को भारतीय गणतंत्र के सभी अंगों का पूरा सम्मान मिला, चाहे वे प्रतिपक्ष में रहे हों या पक्ष में.
सरकारी मशीनरी पर इन लोगों को बेहूदा आरोप लगाते कभी नहीं देखा गया. लोकतंत्र में सभी संस्थाओं को एक-दूसरे के प्रति सम्मान भाव रखना ही होगा.