किसी भी देश के विकास के लिए जरूरी है कि जनता सुशिक्षित हो. देश का हर नागरीक तभी सुशिक्षित हो सकता है जब शिक्षा का ढांचा मजबूत हो और शिक्षा सबको आसानी से सुलभ हो. अशिक्षित युवा पीढ़ी देश और खुद के परिवार के लिए एक बोझ की तरह होती है और जनता का जितना बड़ा वर्ग अशिक्षित का पर्याप्त शिक्षित नहीं होगा, उतनी ही मानवशक्ति का नुकसान राष्ट्र को होगा तथा इससे विकास की प्रक्रिया भी अवरुद्ध होगी.
हमारा देश वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़ा होने की दिशा में तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है. इसमें शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से तरक्की भी महत्वपूर्ण कारक है. अब हर परिवार चाहे वह अमीर हो, मध्यम या निम्न मध्यमवर्गीय हो अथवा श्रमिक वर्ग हो, अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाने के लिए प्रयासरत है. इसके बावजूद देश में शिक्षा के ढांचे को और ज्यादा सुव्यवस्थित बनाने की दिशा में बहुत कुछ काम बाकी है.
एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसके बच्चे स्कूल में प्रवेश तो ले लेते हैं लेकिन स्कूल जाते ही नहीं या प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के पहले ही शाला छोड़ देते हैं. गरीबी निश्चित रूप से इसके लिए जिम्मेदार है लेकिन शालाओं में बुनियादी सुविधाओं के अभाव, शिक्षा के कमजोर स्तर तथा शिक्षकों की अनुपस्थिति भी इसके लिए जिम्मेदार है. इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों खासकर दुर्गम क्षेत्रों में सड़क संपर्क का अभाव एवं यातायात साधनों की कमी भी बच्चों के स्कूल न जाने का बड़ा कारण है. सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि 11.70 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते. 144 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में 20 करोड़ बच्चे निजी तथा सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. जब इतनी बड़ी तादाद में बच्चे प्राथमिक शालाओं में जा रहे हों तो 11.70 लाख की संख्या बहुत बड़ी नजर नहीं आती, मगर इस संख्या को छोटा नहीं समझना चाहिए.
ये 11.70 लाख बच्चे भी अपने भविष्य को संवार कर देश के विकास की मुख्य धारा से जुड़ने के हकदार हैं. उनकी प्रतिभा देश को उन्नति के पथ पर ले जाने में योगदान दे सकती है लेकिन जब उन्हें ज्ञान ही नहीं मिलेगा तो उनका कौशल कैसे निखरेगा और वे अपने परिवार का, समाज का और देश के विकास की प्रक्रिया में रचनात्मक योगदान कैसे दे पाएंगे. इस बात की गहराई में जाना होगा कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं. केंद्र तथा राज्य सरकारों ने प्रत्येक बच्चे को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करवाने के लिए ढेरों योजनाएं चला रखी हैं.
शिक्षा नि:शुल्क मुहैया करवाने के साथ-साथ बच्चों को शाला में दोपहर का भोजन भी मुहैया करवाया जा रहा है. सरकारी शालाओं में बच्चों को गणवेश तथा पाठ्यपुस्तकें भी सरकार उपलब्ध करवाती है. अगर ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की समुचित व्यवस्था न हो तो सरकार उन क्षेत्रों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, अनुसूचित जाति तथा जनजाति एवं पिछड़े वर्गों के बच्चों को छात्रावास में नि:शुल्क रहने, उनके मुफ्त भोजन तथा कई राज्यों में मासिक खर्च देने की योजनाएं भी संचालित करती हैं. इसके अलावा शिक्षा का अधिकार कानून भी मौजूद है. इसके तहत निजी शालाओं में 25 प्रतिशत स्थान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए आरक्षित रहते हैं. यह सब तो शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम हैं.
अब सवाल यह पैदा होता है कि इतनी सारी सुविधाओं के बावजूद 11.70 लाख बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं या पढ़ने के लिए स्कूल जाना नहीं चाहते हैं? कमी आखिर कहां रह गई है? कारण भी बहुत सारे मिल जाएंगे. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में लगभग दो हजार प्राथमिक तथा माध्यमिक शालाएं पेड़ के नीचे या टेंट में चलती हैं. 24 हजार स्कूलों के लिए पक्के भवन नहीं हैं.
30 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं हैं. डेढ़ लाख सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के 12 लाख पद खाली हैं. गांवों में शिक्षक पढ़ाने के लिए नहीं जाते. गांवों और शहरों दोनों ही जगहों पर सरकारी स्कूलों में लाइब्रेरी, प्रयोगशाला, ब्लैक बोर्ड, बैठने के लिए टेबल-कुर्सी, फर्निचर, पीने का साफ पानी, खेल के मैदान नहीं हैं. दुर्गम क्षेत्रों के बच्चों को यातायात के साधन उपलब्ध नहीं हैं. उनके गांवों में स्कूल नहीं हैं, उन्हें स्कूल जाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता है, कई बार तो सड़क और पुल न होने के कारण नदी पार करके स्कूल तक जाने का जोखिम उठाना पड़ता है. इन सब असुविधाओं के चलते बच्चे स्कूल जाना नहीं चाहते. शिक्षा के ढांचे की इन कमियों के बारे में विभिन्न मंचों पर आवाज उठाई जाती है.
संसद, विधान मंडलों तथा स्थानीय निकायों में जनप्रतिनिधि सरकार का ध्यान आकर्षित करते रहते हैं. इन सबके बावजूद सरकारी स्कूलों की दशा में सुधार नहीं हो रहा है. लोग सरकारी शालाओं में बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना नहीं चाहते. ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति से भी शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है. गरीब परिवार अपने बच्चों को निजी शालाओं में प्रवेश दिलवाना तो चाहते हैं लेकिन शिक्षा के अधिकार कानून पर सरकारी मशीनरी असरदार ढंग से अमल नहीं करवा पा रही है. शिक्षा के मार्ग में गरीबी बहुत बड़ा अभिशाप है. स्कूल जाने योग्य ऐसे बच्चों की संख्या बहुत बड़ी है, जो अपने परिवार का अंतिम सहारा हैं.
उनके परिवार के सामने धर्मसंकट रहता है कि वे बच्चों को स्कूल भेजें या घर चलाने के लिए उनसे नौकरी या मजदूरी करवाएं. ये परिवार घोर गरीबी के कारण बच्चों को स्कूल नहीं भेजते. जो 11.70 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं, वे निश्चित रूप से घोर गरीबी की चपेट में होंगे. ऐसा नहीं है कि स्थिति हमेशा ऐसी ही रहेगी. सरकार गरीब परिवारों की मजबूरी को समझती है.
एक जमाना था जब करोड़ों बच्चे स्कूल जाने में असमर्थ रहते थे अब स्थिति में बहुत फर्क आया है. देश की 73 प्र.श. से ज्यादा आबादी साक्षर है, इससे शिक्षा के क्षेत्र की बदलती तस्वीर का अंदाज हो जाता है. इसके बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए बहुत गुंजाइश है और उम्मीद है कि सरकार एक भी बच्चे को अशिक्षित न रहने देने के लिए सकारात्मक एवं सुधारात्मक कदम जल्दी ही उठाएगी।