इस खबर ने निश्चय ही आपको भी चौंकाया होगा कि महाराष्ट्र के सरकारी स्कूलों में 8 वीं कक्षा में पढ़ने वाले करीब 30 प्रतिशत विद्यार्थी दूसरी कक्षा की पुस्तकें ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं. यह जानकारी एसर की रिपोर्ट में सामने आई है. एसर से आशय है एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट. हिंदी में इसे शिक्षा रिपोर्ट की वार्षिक स्थिति कह सकते हैं. यदि आप थोड़ी सी पड़ताल करें तो पता चलेगा कि जनवरी 2017 में एसर की जो रिपोर्ट आई थी, उसमें कहा गया था कि महाराष्ट्र के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 24.2 प्रतिशत विद्यार्थी दूसरी कक्षा की पुस्तकें नहीं पढ़ पाते हैं.
ये दो आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि आठवीं की कक्षा में ऐसे विद्यार्थियों का प्रतिशत बढ़ा है जो दूसरी कक्षा के योग्य भी नहीं हैं. ये औसत आंकड़े हैं. यदि हर जिले का आंकड़ा अलग-अलग देखें तो कई जिलों में 50 प्रतिशत ऐसे विद्यार्थी हैं जो पढ़ छठी से आठवीं के बीच रहे हैं लेकिन दूसरी कक्षा की पुस्तक भी उन पर भारी है. जोड़, घटाव, गुणा, भाग और बोलकर शुद्ध पढ़ने को लेकर जो आंकड़े जाहिर हुए हैं वे तो और भी भयावह हैं.
तो सवाल पैदा होता है कि राज्य के सरकारी स्कूलों की यह दुर्दशा क्यों है? सरकारी स्कूलों में तो शिक्षा के तय पैमानों पर खरा उतरने वाले युवा ही शिक्षक के रूप में भर्ती होते हैं. इसका मतलब है कि सैद्धांतिक तौर पर शिक्षकों की योग्यता में कोई कमी नही होनी चाहिए और हम यह मानकर भी चलते हैं कि सरकारी स्कूल के शिक्षक निश्चय ही योग्य हैं. तो क्या बच्चों को पढ़ाने के प्रति समर्पण नहीं है?
सभी शिक्षकों के लिए ऐसा भी समान रूप से नहीं कहा जा सकता है. जिसने शिक्षा प्रदान करने का दायित्व लिया है तो वह केवल नौकरी कर रहा होगा और अपने दायित्व की पूर्ति में समर्पित नहीं होगा, यह कहना अन्याय होगा. हर क्षेत्र में कुछ काम करने वाले, कुछ ज्यादा काम करने वाले, कुछ आराम करने वाले और कुछ लापरवाह होते हैं लेकिन एक व्यवस्था चलती रहती है जो वांछित फल देती है.
यदि सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है तो इसका मतलब है कि व्यवस्था में कहीं कोई लोचा है. यह सवाल उठता भी रहा है और यह मांग भी उठती रही है कि सरकार शिक्षा को निजी क्षेत्र के हवाले नहीं छोड़ सकती है. एक बड़ा वर्ग आज भी ऐसा है जिसके पास इतना पैसा नहीं होता कि वह अपने बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ा सके. उसके लिए शिक्षा का एकमात्र मंदिर सरकारी स्कूल ही होता है.
यदि सरकार सरकारी स्कूलों की दशा नहीं सुधार पा रही है तो इसका मतलब है कि शिक्षा के अधिकार के प्रति लापरवाही भरा व्यवहार कर रही है. आप सोचिए कि जो विद्यार्थी आठवीं में पढ़ रहे हैं और दूसरी कक्षा जितनी योग्यता भी हासिल नहीं कर पाए हैं वे जब स्कूल या बाद में कॉलेज से निकलेंगे तो उनके सामने कितनी विकट स्थिति होगी. कहने को वे शिक्षित होंगे लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी क्योंकि वे वांछित योग्यता पर खरे नहीं उतरेंगे.
शिक्षा का मूल उद्देश्य है जानकारीपूर्ण और कौशलपूर्ण युवा तैयार करना. यदि सरकारी स्कूल ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इसके लिए सरकार नहीं तो और किसे दोषी ठहराएं? सरकार चाहे तो स्थिति क्यों नहीं सुधर सकती? इसीलिए लोग कहते भी हैं कि सरकारी अधिकारियों के लिए उनके बच्चों का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए तो देखिए कि हालात चुटकियों मे कैसे बदलते हैं! फिलहाल ये ख्वाब ही है..!