विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतंत्र में वंशवाद नहीं, योग्यता को महत्व दें
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: January 2, 2020 06:57 IST2020-01-02T06:57:52+5:302020-01-02T06:57:52+5:30
ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के नए मंत्रिमंडल का है. 43 सदस्यों वाले मंत्रिमंडल में 19 मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े हैं अर्थात् किसी का पिता राजनीति में था किसी का भाई या किसी का चाचा. ठाकरे परिवार से पहली बार चुनाव लड़ने वाले आदित्य अपने पिता के मुख्यमंत्रित्व वाले मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बन गए हैं. चौथी बार उपमुख्यमंत्री बनने वाले के चाचा राजनीति के ‘पवार परिवार’ के मुखिया हैं.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे। (फाइल फोटो)
मराठी में जनतंत्र के लिए अक्सर लोकशाही शब्द काम में लिया जाता है. लोकशाही अर्थात् लोक का शासन. जनतंत्र का मतलब भी यही होता है. पर लोक से जुड़ा हुआ ‘शाही’ शब्द इसे अनायास ही राजशाही से जोड़ देता है. अच्छा लगता है लोक के साथ शासक का इस तरह जुड़ना. लगभग सात दशक पहले जब हमने यानी ‘हम भारत के लोग’ ने अपने लिए जनतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकारा था तो इसके साथ ही यह एहसास भी जागा था कि अब मतदाता यानी आम आदमी ही इस देश का भाग्यविधाता है. हम वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं, जो हमारे हित में देश का शासन सूत्र संभालता है. लेकिन, इन 70-72 सालों में कब हमारा यह निर्वाचित प्रतिनिधि हमारा नेता बन गया और कब यह ‘नेता’ उस राजशाही में बदल गया जिसमें शासन-सूत्र किसी परिवार की बपौती बन जाता है, पता ही नहीं चला. आज सारे देश में ढेर सारे राजपरिवार बन गए हैं. राजशाही को हमने भले ही विदा कर दिया हो, पर परिवारशाही हम पर हावी होती जा रही है.
ऐसा नहीं है कि इस बारे में कभी बात नहीं होती पर एक लंबे अरसे तक देश में नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में ही सत्ता रहने के कारण राजनीति में परिवारवाद के वर्चस्व का मतलब नेहरू परिवार के शासन से ही लिया जाने लगा है. जबकि हकीकत यह है कि आज लगभग हर राज्य में परिवार विशेष राजनीति में हावी है. अरसे तक देश में कांग्रेस का शासन रहा था, इसलिए अरसे तक विरोधी दल कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाते रहे, पर अब तो लगभग हर राजनीतिक दल में कोई परिवार राजनीति की ठेकेदारी करता दिखने लगा है. जीते सब वोट पाकर ही हैं, यह सही है, पर ‘राजनीतिक परिवारों’ से जुड़े लोग ही अक्सर चुनाव जीत जाते हैं, यह भी सही है. और हमने यह भी देखा है कि मंत्रिमंडलों पर कुछ गिने-चुने परिवार ही हावी रहते हैं.
ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के नए मंत्रिमंडल का है. 43 सदस्यों वाले मंत्रिमंडल में 19 मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े हैं अर्थात् किसी का पिता राजनीति में था किसी का भाई या किसी का चाचा. ठाकरे परिवार से पहली बार चुनाव लड़ने वाले आदित्य अपने पिता के मुख्यमंत्रित्व वाले मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बन गए हैं. चौथी बार उपमुख्यमंत्री बनने वाले के चाचा राजनीति के ‘पवार परिवार’ के मुखिया हैं. राज्य के पिछले भाजपा शिवसेना के शासन वाले मंत्रिमंडल में आठ राजपरिवारों के सदस्य शामिल थे. इस बार तीन दलों का शासन है, जिसमें 19 लोग राजनीतिक परिवारों से आए हैं.
अपने पिता के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में शामिल शिवसेना के युवा नेता आदित्य पर आज बार-बार निगाहें जा रही हैं. पर यह पहली बार नहीं है, जब देश में किसी राज्य में मुख्यमंत्री का बेटा मंत्रिमंडल में शामिल हुआ है. पंजाब, तमिलनाडु, हरियाणा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में हम पहले ही पिता-पुत्र की जोड़ी को एक साथ मंत्रिमंडल में देख चुके हैं. राजनीतिक विरासत वाली यह कहानी देशभर में किसी न किसी रूप में दिख रही है. शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा बचा हो जिसमें राजनेताओं द्वारा अपनी विरासत परिवार के ही किसी सदस्य को सौंपने का उदाहरण न मिलता हो. शायद कम्युनिस्ट पार्टियां इसका अपवाद हैं. हमारी राजनीति की यह हकीकत कई बार सवालों के घेरे में आ चुकी है. अक्सर यह बात उठती रही है कि राजनीतिक परिवारों का इस तरह पनपना जनतांत्रिक मूल्यों के कितना अनुरूप है. और अक्सर राजनेता यह तर्क देते रहे हैं कि यदि एक डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन सकता है, आईएएस अफसर का बेटा अफसर बन सकता है तो राजनेता के बेटे या भाई-भतीजे के राजनीति में आने पर सवाल क्यों?
सवाल इसलिए उठता है कि जनतंत्र समानता की नींव पर खड़ा है. हमारा संविधान सबको समान अवसर देने की बात कहता है. ऐसे में चुनाव जीतने वाला तर्क कुछ कमजोर हो जाता है. राजनीतिक घरानेशाही से जुड़े लोगों को अनायास ही दौड़ शुरू करने से पहले कुछ कदम आगे खड़े होने का अवसर मिल जाता है. इन ‘कुछ कदमों’ पर देश के हर नागरिक का अधिकार होना चाहिए. अवसर की समानता का यही अर्थ होता है.
लेकिन सही यह भी है कि किसी राजनीतिक घराने में जन्म लेने के कारण किसी नागरिक का राजनीति में प्रवेश करना गलत क्यों माना जाए? क्या यह उसके जनतांत्रिक अधिकार का हनन नहीं होगा? यदि यह हनन हो सकता है तो फिर समस्या का समाधान क्या है?
समाधान नागरिक के हाथ में है. जहां राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीति में घरानेशाही की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं, वही नागरिक का यानी मतदाता का यह दायित्व बनता है कि वह अपने विवेक का उपयोग करे. उसके चयन का आधार उम्मीदवार की योग्यता होना चाहिए, और इस योग्यता में उसका किसी परिवार विशेष से जुड़ा होना कोई स्थान नहीं रखता. इसलिए, यदि आज राजनीतिक दलों में राजनीतिक परिवार फल-फूल रहे हैं और देश की विधानसभाओं में, और संसद में भी,
राजनीतिक परिवार ताकतवर होते दिख रहे हैं, तो इसके लिए अंतत: मतदाता ही दोषी ठहरता है. मतदाता अर्थात् मैं और आप. हमें ही यह निर्णय लेना है कि हम घरानेशाही को प्रश्रय नहीं देंगे. हम राजनीतिक दलों से पूछेंगे कि वे परिवार को ‘जन’ से ज्यादा महत्व क्यों देते हैं? किसी भी स्थिति में राजशाही लोकशाही पर हावी नहीं होनी चाहिए. तभी जनतंत्र बचेगा