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विजय दर्डा का ब्लॉग: जिंदगी अब हर हाल में पटरी पर लौटनी चाहिए

By विजय दर्डा | Updated: May 18, 2020 07:18 IST

श्रमिकों का यह विस्थापन आजादी के समय हुए विस्थापन से भी बहुत बड़ा है. इस संकट के कारण करीब पांच करोड़ लोग विस्थापन की चपेट में आए हैं. मीडिया में जब मैं इस विस्थापन की तस्वीरें  देखता हूं तो दिल रो पड़ता है. मुझे लगता है उनके भीतर भरोसा पैदा करना होगा कि यदि अब कभी संकट आए भी तो उनका खयाल रखा जाएगा. यदि भरोसा पैदा हुआ तो वे लौटेंगे लेकिन इसमें वक्त लगेगा!

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कोविड-19 के कहर से निपटने के लिए सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन किया, अच्छा किया क्योंकि यही लड़ने का एकमात्र विकल्प था. इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है. मौत के बवंडर को रोकने में भारत काफी हद तक कामयाब रहा है. लेकिन इसकी बड़ी कीमत भी हमने चुकाई है और चुका रहे हैं. इसलिए बहुत जरूरी है कि इन हालात से हम बाहर निकलें. मैं एन. आर. नारायणमूर्ति से पूरी तरह से सहमत हूं कि हमें कोरोना के साथ जीना सीखना होगा. अर्थव्यवस्था में और ज्यादा क्षति बर्दाश्त करने की हमारी हैसियत नहीं है.

सरकार भी इस बात को समझ रही है और इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा की है. इसमें से 3 लाख करोड़ रुपये सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम एंटरप्राइजेज यानी एमएसएमई को आसान शर्तो पर कर्ज के रूप में उपलब्ध कराने की घोषणा भी की गई है. मैं इसे सबसे महत्वपूर्ण सेक्टर मानता हूं क्योंकि एमएसएमई बड़े उद्योगों के लिए सप्लाई चेन का काम करती है. मसलन कोई बड़ा उद्योग वाहन बनाता है तो वाहन के छोटे-मोटे सारे पुर्जे इन्हीं एमएसएमई से बनकर आते हैं. भारत में जो 40 करोड़ नौकरियां हैं उनमें से 10 से 12 करोड़ रोजगार यही क्षेत्र देता है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने कहा है कि भारत में बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत तक पहुंच गई है यानी इस लॉकडाउन के दौरान करीब 14 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई है. इनमें से करीब 2 करोड़ नौकरियां एमएसएमई सेक्टर में कम हो गई हैं.

यदि एमएसएमई पूरी क्षमता के साथ फिर से शुरू हो गए तो 2 करोड़ नौकरियां लौट सकती हैं लेकिन क्या यह सब आसानी से हो जाएगा? इस वक्त बाजार में कच्चे माल का अभाव और डिमांड में कमी तो है ही, सबसे जरूरी श्रमिक फोर्स का संकट पैदा हो गया है.  लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के भीतर भरोसा बनाए रखने में विफलता के कारण वे श्रमिक गांव लौट चुके हैं या लौट रहे हैं. केवल रेलवे ने अभी तक 15 लाख से अधिक श्रमिकों को पहुंचाया है. सौ, दो सौ, पांच सौ किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचने वाले श्रमिकों की संख्या अलग है. इनमें वे श्रमिक भी शामिल हैं जो अत्यंत स्किल्ड हैं और उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता. अब क्या ये श्रमिक फिर से शहरों की ओर लौटेंगे? यह सवाल इसलिए है कि उन्हें इस संकट में भारी दर्द का सामना करना पड़ा है.

श्रमिकों का यह विस्थापन आजादी के समय हुए विस्थापन से भी बहुत बड़ा है. इस संकट के कारण करीब पांच करोड़ लोग विस्थापन की चपेट में आए हैं. मीडिया में जब मैं इस विस्थापन की तस्वीरें  देखता हूं तो दिल रो पड़ता है. मुझे लगता है उनके भीतर भरोसा पैदा करना होगा कि यदि अब कभी संकट आए भी तो उनका खयाल रखा जाएगा. यदि भरोसा पैदा हुआ तो वे लौटेंगे लेकिन इसमें वक्त लगेगा!

अपना कारोबार करने वाले छोटे व्यापारियों के लिए भी सहायता की कोई योजना बनानी होगी. केवल बैंक इंस्टालमेंट में कुछ महीनों की छूट से समस्या का निदान नहीं होने वाला है. बेरोजगारी और तनख्वाहों में कटौती के कारण बाजार में पैसा नहीं होगा तो लोग सामान खरीदेंगे कैसे? जब मांग कम होगी तो व्यापार या व्यवसाय में वृद्धि की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं? उद्योग-धंधों को कर्ज नहीं बल्कि पैसे सीधे उनके अकाउंट में डालने की जरूरत है. तभी वे इस संकट से बाहर आ सकते हैं.

अब यह कहा जा रहा है कि कोविड-19 संकट के बाद बहुत सी कंपनियां चीन छोड़ कर भारत आना चाह रही हैं. इनके लिए सरकार ने 4.61 लाख हेक्टेयर भूमि चिह्न्ति भी की है. चीन से 40 फैक्ट्रियां चीन के रवैये के कारण वहां से बाहर निकली हैं. उसमें से अधिकांश फैक्ट्रियां वियतनाम और बांग्लादेश की तरफ गई हैं. करीब 27 फैक्ट्रियां  वियतनाम में अकेले गई हैं. भारत के लिए केवल दो कंपनियों ने इंक्वायरी की है, आई नहीं हैं.  यदि हमें चीन से निकलने वाली इन कंपनियों को आकर्षित करना है तो ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की अपनी रैंकिंग टॉप 10 में लानी होगी. इस कॉलम में मैंने पहले भी लिखा है कि कंपनियां तभी हमारे यहां आएंगी जब जमीन, पानी, बिजली, लेबर लॉ के क्षेत्र में उन्हें सहूलियत हम देंगे और उनमें विश्वास पैदा करेंगे. महाराष्ट्र चूंकि एक अग्रणी राज्य है इसलिए उसे इस मामले में आगे आना चाहिए. लेकिन मैं जब यह देखता हूं कि पहले मारुति और हाल ही में किया मोटर्स इंक्वायरी करके महाराष्ट्र से बाहर चली जाती हैं तो बहुत दुख होता है क्योंकि ऐसी फैक्ट्रियां अपने आसपास हजारों छोटे उद्योग-धंधों का क्लस्टर पैदा करती हैं.  

बहरहाल, वर्तमान में देश में कई नकारात्मक बातों की ओर उंगली उठाई जा रही है लेकिन मुझे लगता है कि इस दौर में हर व्यक्ति को सकारात्मक भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए. निश्चय ही इन दो महीनों ने जो जख्म दिए हैं उससे हर व्यक्ति आहत है. वह चाह रहा है कि पहले की तरह फिर से काम-धंधे पर लौटे. उद्योग और व्यवसाय फिर से शुरू हो जाए, कल-कारखानों की मशीनें फिर से शोर मचाएं. मजदूर फिर से पसीने में भीगे नजर आएं. बाजार में फिर से रौनक छा जाए. जिंदगी फिर से पटरी पर आ जाए! मैं जानता हूं कि यह सब बहुत आसान नहीं होगा लेकिन यह असंभव भी नहीं है. जो दुनिया में नहीं है वह हिंदुस्तान में है और वह है हमारी क्षमता, हमारा संस्कारित मनोबल. हम बेहतर कल की ओर जरूर बढ़ेंगे, पूरी दुनिया के सामने अपनी शक्ति का इजहार भी करेंगे और विजय पताका भी फहराएंगे.

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