वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: अमेरिका के झांसे में न आए भारत
By वेद प्रताप वैदिक | Published: October 12, 2020 02:12 PM2020-10-12T14:12:16+5:302020-10-12T14:12:16+5:30
जरा याद करें, अब से लगभग पौने दो सौ साल पहले प्रथम अफगान-ब्रिटिश युद्ध में क्या हुआ था? 16 हजार की ब्रिटिश फौज में से हर जवान को पठानों ने कत्ल कर दिया था. सिर्फ डॉ. ब्राइडन अपनी जान बचाकर छिपते-छिपाते काबुल से पेशावर पहुंचा था. पठानों से भिड़कर पहले रूसी पस्त हुए और अब अमेरिकियों का दम फूल रहा है.
अफगानिस्तान के वर्षो विदेश मंत्नी रहे डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला आजकल अफगानिस्तान की राष्ट्रीय मेल-मिलाप परिषद के अध्यक्ष हैं. वे ही दोहा में तालिबान के साथ बातचीत कर रहे हैं. वे भारत आकर हमारे प्रधानमंत्नी और विदेश मंत्नी से मिले हैं. कतर की राजधानी दोहा में चल रही इस त्रिपक्षीय बातचीत - अमेरिका, काबुल सरकार और तालिबान - में इस बार भारत ने भी भाग लिया है. हमारे नेताओं और अफसरों से उनकी जो बात हुई है, उसकी जो सतही जानकारी अखबारों म्में छपी है, उससे आप कुछ भी अंदाज नहीं लगा सकते.
यह भी पता नहीं कि इस बार अब्दुल्ला दिल्ली क्यों आए थे? अखबारों में जो कुछ छपा है, वह वही घिसी-पिटी बात छपी है, जो भारत सरकार कुछ वर्षो से दोहराती रही है यानी अफगानिस्तान में जो भी हल निकले, वह अफगानों के लिए, अफगानों द्वारा और अफगानों का ही होना चाहिए. हमारी सरकार से कोई पूछे कि यदि ऐसा ही होना चाहिए तो आप और अमेरिका बीच में टांग क्यों अड़ा रहे हैं? मुङो डर है कि हम अमेरिका की वजह से अड़ा रहे हैं. ट्रम्प ने कह दिया है कि उनकी फौजें क्रिसमस तक अफगानिस्तान से लौट आएंगी. तो फिर ट्रम्प यह बताएं कि काबुल में क्या होगा? क्या उन्होंने तालिबान से गुपचुप हाथ मिला लिया है? तालिबान तो आज तक अड़े हुए हैं. दोहा में बातें चल रही हैं तो चलती रहें. तालिबान बराबर हमला और हल्ला बोल रहे हैं. तालिबान के कई गुट हैं. हर पठान अपना मालिक खुद होता है.
जरा याद करें, अब से लगभग पौने दो सौ साल पहले प्रथम अफगान-ब्रिटिश युद्ध में क्या हुआ था? 16 हजार की ब्रिटिश फौज में से हर जवान को पठानों ने कत्ल कर दिया था. सिर्फ डॉ. ब्राइडन अपनी जान बचाकर छिपते-छिपाते काबुल से पेशावर पहुंचा था. पठानों से भिड़कर पहले रूसी पस्त हुए और अब अमेरिकियों का दम फूल रहा है. अमेरिका अपनी जान छुड़ाने के लिए कहीं भारत को वहां न फंसा दे? अमेरिका तो चाहता है कि भारत अब चीन के खिलाफ भी मोर्चा खोल दे और एशिया में अमेरिका का पिछलग्गू बन जाए. जब तक पाकिस्तान से अमेरिका की छन रही थी, उसने भारत की तरफ झांका भी नहीं लेकिन उसके और हमारे नीति-निर्माताओं को पता होना चाहिए कि यदि भारत ने अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह लेने की कोशिश की तो हमारा हाल वही होगा जो 1838-42 में ब्रिटेन का हुआ था.
1981 में प्रधानमंत्नी बबरक कारमल ने चाहा था कि रूसी फौजों का स्थान भारतीय फौजें ले लें. हमने विनम्रतापूर्वक उस आग्रह को टाल दिया था. अब भी हमें सावधान रहना होगा. आज भी अफगान जनता के मन में भारत का बहुत सम्मान है. भारत ने वहां अद्भुत सेवा-कार्य किया है. अमेरिकी वापसी के दौरान भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे.