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भाषा के नाम पर बांटने की कोशिश ठीक नहीं 

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: September 24, 2025 07:21 IST

हमें इस हकीकत को भी नहीं भुलाना है कि इन दो भाषाओं के बंटवारे की कोशिश औपनिवेशिक काल में की गई थी और उद्देश्य था भारतीय समाज को बांटना.

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दिन-रात, अदालत, सितारे, आसमान, गुस्सा, मज़ाक, ज़िंदगी, मौत, इशारा, पानी, कलम, मुश्किल, आसान.... इन और ऐसे अनेक शब्दों में क्या समानता है? यह कि ये शब्द बोलते या लिखते समय हमें कतई नहीं लगता ये हमारे शब्द नहीं हैं. हमारे यानी हमारी भाषा के शब्द. पर यह हमारे शब्द हैं नहीं. यह उस भाषा के शब्द हैं जिसे उर्दू कहते हैं और उर्दू एक ऐसी भाषा है जो हमारे भारत में ही जन्मी, पली, बढ़ी, पर देश का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे यह भाषा पराई लग रही है.  

कुछ ही दिन पहले राजस्थान सरकार ने आदेश जारी किया था कि पुलिस की कार्यवाही में उर्दू-फारसी के शब्दों को काम में न लिया जाए- पुलिस की कागजी कार्यवाही सिर्फ हिंदी में ही होनी चाहिए.  मतलब यह कि पुलिस अब जांच नहीं अनुसंधान करेगी.  वैसे, अनुसंधान अथवा ऐसे अन्य शब्दों से भी भला किसी को कोई शिकायत क्यों होनी चाहिए? लेकिन सवाल तो यह है कि ‘जांच’ से किसी को शिकायत क्यों है?

डिक्शनरी देखें तो पता चलता है कि विषय और स्थिति के अनुसार जांच के पर्यायवाची शब्दों में छानबीन, पूछताछ, खोज, अन्वेषण, शोध, तफ्तीश जैसे शब्द मिलते हैं और अपने रोजमर्रा के व्यवहार में हम ऐसे शब्दों को धड़ल्ले से काम में लेते भी हैं. पर अब समस्या यह उठ गई है कि इन पर्यायवाची शब्दों में भी ऐसे शब्दों की भरमार है जो उर्दू के नाम पर त्यागने योग्य माने जाने लगे हैं!

जब संविधान सभा में राष्ट्र की भाषा के विषय पर विचार हो रहा था तो कुछ लोगों ने उस मिली-जुली भाषा का समर्थन किया था, जिसे महात्मा गांधी ‘हिंदुस्तानी’ कहते थे.  पर शुद्ध हिंदी (पढ़िए संस्कृतनिष्ठ) के समर्थकों ने इसे स्वीकार नहीं किया. अंतत: देवनागरी में लिखी गई ‘शुद्ध हिंदी’ को ही राज्यभाषा के रूप में स्वीकारा गया.  सरकारी कामकाज के लिए नए शब्द गढ़े गए. शब्दकोश बने. इन शब्दकोशों की भाषा को आज ‘सरकारी हिंदी ‘के रूप में जाना जाता है और उसके अनुसार स्मृतिपत्र या याददहानी की जगह ‘अनुस्मारक’ जैसे शब्द काम में लिए जाते हैं.  अब कुछ लोगों को याददहानी जैसे उर्दू शब्द नितांत अस्वीकार्य हैं.

उनका कहना है यह उर्दू हमारी भाषा नहीं है, जबकि अनेकों बार, और विवेक सम्मत तर्कों के अनुसार यह एक स्थापित तथ्य है कि उर्दू कहीं बाहर से नहीं आई. यह भाषाई विविधता हमारी ताकत है.  हमारा सौंदर्य भी.

यह एक शर्मनाक कोशिश ही है कि हिंदी और उर्दू को हिंदू और मुसलमान में बांटा जा रहा है. हमें इस हकीकत को भी नहीं भुलाना है कि इन दो भाषाओं के बंटवारे की कोशिश औपनिवेशिक काल में की गई थी और उद्देश्य था भारतीय समाज को बांटना.  आज भी भाषा को हिंदू-मुसलमान में बांट कर ऐसी ही खतरनाक कोशिश की जा रही है.  इस कोशिश को हर मोर्चे पर हराना जरूरी है.  

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