राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव बढ़ना ठीक नहीं?, सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु गवर्नर आरएन रवि की भूमिका पर सख्त टिप्पणी..
By राजकुमार सिंह | Updated: April 11, 2025 05:49 IST2025-04-11T05:48:53+5:302025-04-11T05:49:59+5:30
तमिलनाडु मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नसीहत दी है कि राज्यपाल को राज्य के मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ से निर्देशित होना चाहिए.

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सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की भूमिका पर विवाद में सख्त टिप्पणियां करते हुए मार्गदर्शक उपाय भी किए हैं. मंजूरी के लिए लंबे समय से लंबित, तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए स्वीकृत घोषित कर विधेयकों पर निर्णय के लिए एक से तीन माह की समय सीमा भी तय कर दी. राज्यपाल राज्य में सर्वोच्च संवैधानिक पद है, जिसकी नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं.
उनसे अपेक्षा रहती है कि वह अपनी सत्तारूढ़ दल की पृष्ठभूमि या उससे निकटता के बावजूद संविधान के दायरे में भूमिका का निर्वाह करें. तमिलनाडु मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नसीहत दी है कि राज्यपाल को राज्य के मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ से निर्देशित होना चाहिए. यह भी कि राज्यपाल समस्याओं के समाधान का अग्रदूत होता है,
उसे उत्प्रेरक होना चाहिए, न कि अवरोधक. ताजा मामला तमिलनाडु के राज्यपाल रवि का है. राज्यपाल और निर्वाचित राज्य सरकार में अशोभनीय टकराव लोकतंत्र और संघवाद के लिए सुखद नहीं है. ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव अचानक बढ़ गया है. हां, उसका स्वरूप अवश्य बदला है.
अब राज्यपाल अपनी संवैधानिक शक्तियों की सुविधाजनक व्याख्या कर निर्वाचित राज्य सरकारों के कामकाज में अड़ंगे लगाते हैं, जबकि अतीत में वे सरकारों को बर्खास्त कर (अपने आकाओं की) मनपसंद सरकार बनाने की हद तक जाते रहे हैं. सत्तर और अस्सी के दशक के बाद राज्यपालों की भूमिकाएं ज्यादा विवादास्पद हो गई हैं.
राज्यपाल नियुक्त करते समय संबंधित राज्य सरकार को भी विश्वास में लेने की कोशिश अपवादस्वरूप ही दिखी. राज्यपाल को मोहरा बनाकर विपक्ष की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का खेल आजादी के बाद ही शुरू हो गया था, जब 1958 में केरल में शिक्षा में बदलाव संबंधी आंदोलन की आड़ लेकर अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करते हुए राज्यपाल ने, विधानसभा में बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद की वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर दिया था.
967 में राज्यपाल धर्मवीर ने पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी की बहुमत प्राप्त वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर वहां पी.सी. घोष के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थित सरकार बनवा दी. 1977 और 1980 में तो यह जैसे ‘म्यूजिकल चेयर गेम’ बन गया. आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हुई तो कई कांग्रेस शासित राज्य सरकारें बर्खास्त कर राज्यपाल भी हटा दिए गए.
1980 में सत्ता में वापसी पर इंदिरा गांधी ने भी उसी अंदाज में हिसाब चुकाया. राज्यपाल के संवैधानिक पद की गिरती गरिमा को दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बचाया जा सकता है, लेकिन मतभेद के बजाय मनभेद की राजनीति में उसकी संभावना दिखती नहीं.