विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग:ऐसा माहौल हो कि भय की धारणा ही न बने

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 5, 2019 13:01 IST2019-12-05T13:01:27+5:302019-12-05T13:01:27+5:30

राहुल बजाज ने उन सबकी ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘हमारे उद्योगपति मित्रों में से कोई नहीं बोलेगा... पर मैं स्पष्ट कहना चाहता हूं कि हमें विश्वास नहीं होता कि यदि हम सरकार की आलोचना करेंगे तो आप (यानी गृह मंत्री) इसे पसंद करेंगे.’

There should be such an atmosphere that there is no fear of fear | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग:ऐसा माहौल हो कि भय की धारणा ही न बने

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग:ऐसा माहौल हो कि भय की धारणा ही न बने

Highlightsविश्वनाथ सचदेव डेनमार्क के एक लेखक ने लिखी थी यह कहानी. लगभग दो सौ साल पहले की बात है कहानी का शीर्षक है ‘राजा के नए कपड़े’. कथानक कुछ इस तरह है कि दो जुलाहे राजा को अनोखे कपड़े बनाकर देने का वादा करते हैं.

डेनमार्क के एक लेखक ने लिखी थी यह कहानी. लगभग दो सौ साल पहले की बात है. कहानी का शीर्षक है ‘राजा के नए कपड़े’. कथानक कुछ इस तरह है कि दो जुलाहे राजा को अनोखे कपड़े बनाकर देने का वादा करते हैं. जुलाहों के अनुसार इन कपड़ों की विशेषता यह है कि वे सिर्फ उन्हें ही दिखेंगे जो या तो अपने पद के काबिल नहीं हैं या फिर जो मूर्ख हैं. जुलाहे राजा को वह कपड़े ‘पहनाने’ का नाटक करते हैं. अब राजा की सवारी निकलती है. कोई नहीं चाहता कि उसे पद के अयोग्य अथवा मूर्ख समझा जाए, इसलिए सब उन ‘कपड़ों’  की तारीफ करते हैं. पर एक बच्चा सच बोल देता है- कह देता है कि राजा बिना कपड़े पहने सबके सामने आ गया है... स्वयं राजा को भी यही लगता है, पर वह यह बोलता नहीं... एंडरसन द्वारा लिखी यह कहानी दुनिया भर की भाषाओं में अनूदित हो चुकी है और एक कहावत की तरह काम में ली जाती है. किसी भय या आशंका से सच न बोलने वालों के संदर्भ में ‘राजा के नए कपड़ों’ का हवाला दिया जाता है.


हाल ही में एक टी.वी. कार्यक्र म में जब देश के प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज ने देश के गृह मंत्री और अन्य मंत्रियों की उपस्थिति में सत्ता के भय का हवाला देते हुए कहा कि व्यावसायिक जगत सरकार की आलोचना करने से डरता है तो अनायास यह कहानी याद आ गई. राहुल बजाज ने यह बात उद्योग की स्थिति, प्रज्ञा ठाकुर के बयानों और भीड़ के उन्माद की घटनाओं आदि के संदर्भ में कही थी. ऐसा लगा जैसे देश का यह अग्रणी उद्योगपति उस बच्चे की भूमिका निभा रहा है जिसने राजा के कपड़ों का सच उजागर किया था. उस कार्यक्रम में देश के प्राय: सभी बड़े उद्योगपति उपस्थित थे. राहुल बजाज ने उन  सबकी ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘हमारे उद्योगपति मित्रों में से कोई नहीं बोलेगा... पर मैं स्पष्ट कहना चाहता हूं कि हमें विश्वास नहीं होता कि यदि हम सरकार की आलोचना करेंगे तो आप (यानी गृह मंत्री) इसे पसंद करेंगे.’ स्पष्ट है, वे कहना चाहते थे कि सरकार को आलोचना स्वीकार नहीं है. राहुल बजाज को वहां उपस्थित किसी भी उद्योगपति का समर्थन नहीं मिला. बजाज कह रहे थे कोई सच बोलना नहीं चाहता और बताना यह चाह रहे थे कि जनतंत्र में सच बोलना जरूरी होता है.

र्यक्रम में उपस्थित गृह मंत्री ने भय के ऐसे किसी भी कारण को नकारते हुए कहा कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पटरी पर चल रही है. फिर भी यदि ऐसी कोई धारणा बन रही है और भय का वातावरण बनने की बात की जाती है तो सरकार इस धारणा को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठाएगी. यह अच्छी बात है कि गृह मंत्री ने वरिष्ठ उद्योगपति के भय के ‘परसेप्शन’  को दूर करने की जरूरत को महसूस किया. लेकिन इसके बाद केंद्र सरकार के मंत्रियों ने जिस तरह इस ‘परसेप्शन’  अर्थात धारणा को नकारने का अभियान-सा चलाया है, उससे लगता है कि शासन अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं है. जनतंत्र का तकाजा है कि आलोचना को ध्यान और धैर्य से सुना जाए और यदि आलोचना में कुछ भी सच्चाई है तो स्थिति को सुधारने की ईमानदार कोशिश की जाए.  
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कथन कि ‘मोदी सरकार हर चीज को और हर व्यक्ति को, शक के प्रिज्म से देखती है’ आरोप नहीं, वस्तुत: एक चेतावनी है. जनतंत्र में विरोधी का मतलब दुश्मन नहीं होता और विरोध करने का मतलब कोई दुश्मनी निभाना नहीं होता. सच तो यह है कि जनतंत्र में सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर देश के रथ को चलाते हैं. दोनों पहियों का मजबूत होना ही रथ के ठीक-ठाक चलने की गारंटी होता है.


राहुल बजाज ने जिस ‘परसेप्शन’  की बात कही है, उसे सरकार को एक चुनौती की तरह लेना चाहिए. सरकार पर अपनी एजेंसियों के माध्यम से विरोधियों को डराने के आरोप भी लगते हैं. महाराष्ट्र में हाल के चुनाव में प्रचार के दौरान शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेता के खिलाफ एक सरकारी एजेंसी की कार्रवाई को डराने की गतिविधि यदि माना गया तो इसमें गलती एजेंसी को आदेश अथवा संकेत देने वाले की ही थी. इस तरह के कार्य ही समाज में धारणाएं बनाते हैं. क्या जल्दबाजी थी एक वरिष्ठ नेता को नोटिस देने की? फिर, अबतक उस संदर्भ में कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? ऐसा ही सवाल प्रज्ञा ठाकुर के संदर्भ में भी उठता है. प्रधानमंत्री ने कहा था वे उन्हें मन से कभी क्षमा नहीं करेंगे- तो फिर अब तक उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई? ऐसी बातें जब इकट्ठा हो जाती हैं तो विकराल बन जाती हैं. इन्हीं से धारणाएं बनती हैं. ऐसी ही धारणाएं किसी राहुल बजाज को शिकायत करने का मौका और हिम्मत देती हैं. जैसे न्याय होना ही नहीं, होते हुए दिखना भी चाहिए, वैसे ही सरकार के कामों की ईमानदारी भी झलकनी चाहिए तभी जनतंत्र मजबूत बनता है. जनता का साहस भी इस मजबूती की बड़ी जरूरत है. इस साहस को सलाम किया जाना चाहिए

Web Title: There should be such an atmosphere that there is no fear of fear

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