सहस्राब्दियों से जाति भारतीय मानस में पत्थर की तरह ठोस पैठ बना चुकी है। विडंबना ही है कि लोकतंत्र बनने के बाद भी भारत में भेदभाव की विरासत जारी रही। सामाजिक ढांचे को सिर के बल खड़ा कर दिया गया, पर जाति आधारित परिवारवाद भी बिना चुनौती के फलता-फूलता रहा। राजनीति एवं नौकरशाही में धनी एवं ताकतवर वंशगत विरासत इस व्यवस्था को पोषित करती रही है, पर बीते सप्ताह आया सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय इस व्यवस्था को पटरी से उतार सकता है।
संसद, चुनाव एवं संस्थानों में जाति पर चल रहे वर्तमान शोर ने शीर्षस्थ न्यायालय के सात न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ को उद्वेलित कर दिया। न्यायाधीश बी.आर. गवई के नेतृत्व में चार न्यायाधीशों ने रेखांकित किया कि जातिगत आरक्षण मेधा से संबंधित है, न कि नौकरशाही या धन तंत्र से। न्यायाधीश गवई ने लिखा कि सरकार को अनुसूचित जाति एवं जनजाति में क्रीमी लेयर की पहचान के लिए नीति बनानी चाहिए, जिससे उन्हें आरक्षण के दायरे से हटाया जा सके।
इसी उपाय से संविधान में निहित समानता को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है। उन्होंने पूछा कि क्या एक बड़े अधिकारी की संतान को पंचायत या जिला परिषद के विद्यालय में पढ़ रहे बच्चे के समकक्ष रखा जा सकता है। यदि गीता भारत की आत्मा है, तो जाति इसका अभिशाप है, जो व्यवस्था सहस्राब्दियों पहले पेशेवर पहचान के रूप से प्रारंभ हुई, वह कालांतर में भ्रष्ट होकर चुनाव जीतने का एक पैंतरा बन गई।
जातिगत आरक्षण की शुरुआत लगभग 125 साल पहले हुई। अनुसूचित जातियों और जनजातियों की दुर्दशा को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका एवं विधायिका में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की, जो एक अस्थायी प्रावधान था और उसकी अवधि दस वर्ष थी। भारतीय राजनीति को यथास्थिति पसंद है और इसे बदलाव से परहेज है। किसी दल ने उस प्रावधान में फेरबदल नहीं किया है। उन्होंने जाति प्रथा को अपने चुनावी घोषणापत्र के लिए आरक्षित रखा है।
आरक्षण का उद्देश्य स्वतंत्रता के बाद की पहली वंचित पीढ़ी की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को बेहतर करना था, लेकिन वह अब तीसरी पीढ़ी का एक विशेषाधिकार बन गया है। आरक्षण का आशय समानता लाने का एक माध्यम बनना था। अब यह सामाजिक अभिजन के अल्पाधिकार और एकाधिकार का युग्म बन गया है। सत्ता पर अपने हिस्से के नियंत्रण से दलित एवं पिछड़े शाहों ने एक विशिष्ट सुरक्षा घेरा बना लिया है, जिसमें निचले पायदान पर खड़े लोगों का प्रवेश वर्जित है।
जब सत्ता ने अपने लाभ को सर्वोच्च बना लिया है, तो नियंत्रण एवं संतुलन के संवैधानिक सिद्धांत का हस्तक्षेप हुआ है। न्यायाधीश गवई ने रेखांकित किया है कि विषमता और सामाजिक भेदभाव, जो ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक व्याप्त हैं, शहरी क्षेत्रों की ओर आते-आते कम होने लगते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अच्छे संस्थानों के छात्र तथा पिछड़े और दूर-दराज के क्षेत्रों में पढ़ रहे छात्र को एक ही श्रेणी में रखना संविधान के समता के सिद्धांत को भुला देना है।
न्यायाधीश पंकज मित्तल ने कहा है कि आरक्षण को पहली पीढ़ी या एक पीढ़ी तक सीमित रखा जाना चाहिए तथा अगर एक पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च हैसियत पा ली है तो तार्किक रूप से अगली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। यदि इस न्यायिक रुख को केंद्र और राज्य स्वीकार कर लेते हैं तो अनुसूचित जाति एवं जनजाति के ऐसे परिवार को आरक्षण नहीं मिलेगा जिसने इस व्यवस्था का लाभ पहले उठा लिया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने चुनिंदा जातियों के आरक्षण के लाभ में बदलाव कर इसे समावेशी बना दिया है तथा अब आरक्षण के दायरे में ऐसी उप-जातियां आ सकेंगी, जो पीछे रह गई हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए वे लोग योग्य नहीं हैं, जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय आठ लाख रुपए से अधिक है। इसमें विसंगति यह है कि कृषि आय को कुल आय में नहीं जोड़ा जाता है। ऐसे में जमीन वाले पिछड़े वर्ग के परिवार आरक्षण का लाभ उठाते हैं।
राजनेता न्यायिक सलाह को नहीं सुनेंगे, चूंकि आरक्षण का श्रेणीकरण विधायिका के तहत है, इसलिए ऐसी संभावना बहुत ही कम है कि नेताओं और अफसरों का गठजोड़ न्यायपूर्ण स्थिति के लिए प्रयासरत होगा। ग्रामीण भारत अभी भी अंधेरे में है, जहां तमाम अपराध होते रहते हैं। बीते तीन दशकों में राजनीति, नौकरशाही और कारोबार वंशानुगत संस्थान बन गए हैं। जातिगत आरक्षण का दुरुपयोग जाति नेताओं ने भी खूब किया है।
निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या पर सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि हर चौथे सदस्य ने अपनी सीट अपने माता-पिता से पाई है। बीते दो दशकों में आए कम से कम 20 प्रतिशत अधिकारी उसी पृष्ठभूमि से आए हैं. हाल में गरीब पृष्ठभूमि से आए कुछ युवाओं ने जगह बनाई है, पर अच्छी शिक्षा और कौशल विकास तक वंचित वर्गों के अधिकतर लोगों की पहुंच नहीं है, जो उच्च जाति के युवाओं के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए जरूरी हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह वरिष्ठ सरकारी नौकरियों को एक परिवार के एक सदस्य तक सीमित करना चाहते थे, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो। उनका मानना था कि चयन व्यवस्था प्रभावशाली के पक्ष में है। उस दौर में सत्ता के गलियारों में यह चुटकुला आम था कि वरिष्ठ अधिकारियों के संतानें संघ लोक सेवा आयोग की ऐसी समितियों के समक्ष साक्षात्कार देती हैं, जिनके सदस्य उनके ‘अंकल और आंटी’ होते हैं।
एक समय तो लगभग 20 आईएएस अधिकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रमुख सचिव के करीबी रिश्तेदार थे। वीपी सिंह का मानना था कि सेवाओं में वंशगत एकाधिकार जारी नहीं रहना चाहिए। वे मंडल कमीशन रिपोर्ट को परे रखने के लिए भी राजी थे, अगर सभी दल ‘एक परिवार, एक पद’ सिद्धांत पर सहमत होते। सामाजिक न्याय के उनके सूत्र पर खामोशी रही क्योंकि पार्टियां अपने वंश, वर्ग एवं जाति के समीकरण को बचाने के लिए एकजुट हो गई थीं। सिंह ने इसका जवाब जाति की बड़ी आग लगाकर दिया, जिसकी चपेट में पूरा देश आ गया।
स्वामी विवेकानंद ने 1900 में ओकलैंड में कहा था कि पुत्र द्वारा हमेशा पिता के कारोबार का अनुगमन करने के कारण जाति व्यवस्था का विकास हुआ। सवा सौ साल बाद भी ताकतवर पिता अपने वर्ग और जाति की मशाल को अपनी संतानों को थमा रहे हैं। इस स्थिति के बदलने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते।