राजनीति को अपराध के दाग से मुक्त करने की मांग लंबे समय से उठाई जा रही है लेकिन जिस तरह से राजनीति में लगातार दागी लोग चुनकर आ रहे हैं, उससे लगता है कि इस मांग का हश्र चिकने घड़े पर पानी डालने जैसा ही हो रहा है. चुनाव अधिकार निकाय ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) के अनुसार दिल्ली में हाल ही में शपथ लेने वाले सात मंत्रियों में से मुख्यमंत्री सहित पांच ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं.
इनमें से एक मंत्री आशीष सूद पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं. यह सच है कि जनप्रतिनिधियों या जनप्रतिनिधि बनने के इच्छुकों पर राजनीतिक विद्वेष के चलते भी आरोप लगाकर आपराधिक मामले दर्ज कराए जाते हैं लेकिन यह कहावत भी गलत नहीं है कि बिना आग के धुआं नहीं उठता है. मामूली अपराधों तक तो फिर भी ठीक है लेकिन गंभीर अपराध बेबुनियाद दर्ज होने की बात हजम नहीं होती.
राजनीति का यह दुर्भाग्य ही है कि इसके बावजूद राजनीतिक दल चुनाव में मामूली अपराध के मामले तो दूर, कई बार दुर्दांत अपराधियों को भी टिकट देने से हिचकते नहीं हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में राजनीति के अपराधीकरण पर एक रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें बताया गया कि 543 लोकसभा सांसदों में से 251 (46 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें से 170 सांसदों पर तो ऐसे गंभीर अपराधों के आरोप हैं जिनकी सजा 5 साल या उससे ज्यादा की कैद हो सकती है. यही नहीं बल्कि विगत एक जनवरी तक मौजूदा या पूर्व विधायकों के खिलाफ 4,732 आपराधिक मामले लंबित हैं.
ये आंकड़े राजनीति के अपराधीकरण की गंभीरता को दर्शाते हैं. चिंताजनक बात यह है कि यह आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है. पिछली लोकसभा में 514 लोकसभा सदस्यों में 225 (44 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले होने की घोषणा चुनावी हलफनामों में की थी, जिनमें 29 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. वर्ष 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में बढ़कर 185 हो गई.
दरअसल राज्यों की विधानसभाओं और देश की संसद में जब दागी सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो निचले स्तर के निर्वाचनों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है. वर्ष 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट और वर्ष 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि भारतीय राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है.
हालांकि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन ऐसे नेता जिन पर केवल मुकदमा चल रहा है, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र होते हैं. इसलिए राजनीति को अपराधमुक्त करने का दायित्व राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का ही है और उन्हें ही तय करना होगा कि यह काम कैसे करना है.