अभिलाष खांडेकर
पिछले कुछ वर्षों में सत्तारूढ़ दलों द्वारा वोट और उसके जरिये सत्ता हासिल करने के लिए सरकारी खजाने से दी जाने वाली सब्सिडी का जो इस्तेमाल किया जा रहा है, वह बेहद चिंताजनक है. लोगों द्वारा मुफ्त कही जाने वाली ‘रेवड़ियों’ और सरकारों द्वारा दी जाने वाली सहायता (सब्सिडी) ने नेताओं को कुशासन से सुरक्षित कर दिया है. कभी आंध्र प्रदेश/तेलंगाना द्वारा गरीबों को सस्ता चावल देने से शुरू हुआ यह वोट-लुभाने का हथियार अब लोगों की कल्पना से परे चला गया है.
नीति निर्माता और नौकरशाह आधिकारिक योजनाओं के लिए नए, आकर्षक नाम सुझाते रहते हैं जो खूबसूरती से मुफ्त चीजों को लपेटते हैं और उपहारों की एक विस्तृत श्रृंखला को तैयार करते हैं, खासकर महिलाओं के लिए.
नीतिगत थिंक टैंक, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने राज्यों के वित्त पर अपनी 2025 की हालिया रिपोर्ट में दिखाया है कि अनेक राज्य अपने धन का इस्तेमाल मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं देने पर कर रहे हैं, जिससे वास्तविक और व्यापक विकास योजनाओं के लिए बहुत कम राशि बचती है.
धन की कमी के कारण आम नागरिकों के लिए विद्यालय, सड़क-पुल और अस्पताल जैसे बुनियादी ढांचे के निर्माण पर पूंजीगत व्यय को कम प्राथमिकता मिल रही है. यह रेवड़ियां राज्यों के खजाने पर अभूतपूर्व दबाव डाल रही हैं, लेकिन राजनेता खुश हैं-उन्हें अब और मेहनत नहीं करनी पड़ती, पैसा बांटो, वोट कमाओ.
पीआरएस के निष्कर्षों के अनुसार, भारत में कई राज्य असीमित ऋण ले रहे हैं और उन्हें चुकाने के लिए भारी मात्रा में ब्याज चुका रहे हैं. इसने सब्सिडी को युक्तिसंगत बनाने की सिफारिश की है. गैरउत्पादक और मुफ्त सब्सिडी योजनाएं उत्पादक पूंजीगत व्यय के लिए कोई राजकोषीय गुंजाइश छोड़ ही नहीं रही हैं.
पीआरएस ने बताया कि राज्यों का बकाया ऋण स्तर सकल घरेलू उत्पाद का 28.5 प्रतिशत आंका गया है, जो एफआरबीएम (राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन) के 20 प्रतिशत के लक्ष्य से कहीं अधिक है.
जाहिर है, सत्ताधारी दल राज्य के कामकाज को चलाने के लिए विवेकपूर्ण वित्तीय उपायों की बजाय तिकड़मों पर निर्भर हैं. झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों या किसानों को मुफ्त बिजली, चुनाव से पहले महिलाओं को सीधे नकद हस्तांतरण, खाद्य सब्सिडी, बस यात्रा, साइकिल और स्कूटी वगैरह राज्यों के वित्त पर अंतहीन बोझ डाल रहे हैं. ये कदम भेदभावपूर्ण भी हैं.
इस नए ‘कल्याणकारी राज्य’ में मजदूरों और नौकरीपेशा लोगों का एक छोटा समूह भारी कर चुकाता है, लेकिन उसे बहुत कम फायदा मिलता है. जो लोग जनसंख्या और अनुत्पादक कार्यों में वृद्धि कर रहे हैं, वे सरकारों के प्रिय हैं, हालांकि लाभार्थियों और गैर-लाभार्थियों, सबके पास एक-एक वोट ही होता है.
इस गंभीर समस्या का समाजशास्त्रीय पहलू यह है कि सारे राजनेता एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जिसे काम करने की बिल्कुल जरूरत नहीं होगी, बल्कि उसका तरह-तरह की सरकारी सहायता पर गुजारा हो जाएगा. कुशल श्रमिकों की पहले से ही कमी है जो अब बढ़ती जा रही है. आलसी पीढ़ी तैयार की जा रही हैं. परंतु इसे रोकना होगा. सही सोच रखने वाले साहसी लोगों और अदालतों को मुफ्तखोरी पर लगाम लगाने के लिए आगे आना होगा, वरना बहुत देर हो जाएगी.