कहने को इस पृथ्वी की ही कई ऐसी जगहें होंगी, जहां इंसानों की पहुंच नहीं बन पाई है. समुद्र की अतल गहराइयों और पृथ्वी की अंदरूनी संरचनाओं से जुड़े रहस्यों की थाह पाना आसान नहीं है. लेकिन अंतरिक्ष तो और भी जटिल दुनिया है. सदियों से इंसान इसके सुदूर इलाकों और रात में चांद-तारों, टिमटिमाते नक्षत्रों में कुछ ऐसा टटोलकर लाना चाहता रहा है जिससे वह इस अनूठी दुनिया को अपने थोड़ा करीब पा सके. विज्ञान के तमाम पराक्रम कर चुके अलग-अलग देश इस कोशिश में अपने नागरिकों को रॉकेटों-यानों से अंतरिक्ष में भेजते भी रहे हैं ताकि वे अपनी आंख से वहां जाकर अंतरिक्ष कही जाने वाली दुनिया को बेहतर ढंग से देख पाएं और उसे समझ पाएं. इस कोशिश में एक नया नाम भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला का जुड़ा है, जो इसरो और नासा के साझा मिशन- एक्सियम 4 पर 25 जून को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की ओर रवाना हुए.
अंतरिक्ष की देहरी पर कदम रखने वाले ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला दूसरे भारतीय हैं. उनसे पहले यह कारनामा स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा 41 साल पहले वर्ष 1984 में कर चुके हैं. राकेश शर्मा सोवियत संघ के साझा स्पेस मिशन पर सोयूज टी-11 से 3 अप्रैल 1984 को अंतरिक्ष में गए थे और वहां उन्होंने सात दिन 21 घंटे बिताए थे. असल में, जब बात जटिल अभियानों की हो, तो साफ है कि हर कोई उसकी योग्यता नहीं रखता. इसमें भी अंतरिक्ष से जुड़े मिशनों के लिए तो योग्यता के साथ जीवट और गहन प्रशिक्षण की भी जरूरत होती है. इन कसौटियों पर देखें तो भारतीय अंतरिक्ष संगठन- इसरो और अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा के संयुक्त मिशन पर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) की राह पकड़ने वाले भारत के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला हमारे लिए नई प्रेरणा हो सकते हैं. जहां तक एक्सियम-4 मिशन का सवाल है, तो इसे लेकर दो साल पहले 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत और अमेरिका के बीच सहमति बनी थी. इसरो के मुताबिक मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र (एचएसएफसी) ने अपने कार्यक्रम के लिए नासा द्वारा मान्यता प्राप्त सर्विस प्रोवाइडर एक्सियम स्पेस (यूएसए) के साथ अंतरिक्ष उड़ान समझौता (एसएफए) किया था, जिसका नाम एक्सियम-4 है.
दस साल तक इसरो के मुखिया रहे यू.आर. राव ने एक अवसर पर कहा था कि भारत को स्पेस में मानव मिशन की एक सख्त जरूरत चीन की चुनौतियों के मद्देनजर है. यानी भारत ने जल्द ही ऐसा नहीं किया तो वह अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की रेस में पड़ोसी चीन से ही मात खा बैठेगा. वैसे तो अमेरिका और रूस की तुलना में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों का सफर थोड़ा छोटा है, लेकिन वर्ष 1969 में गठित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने साढ़े पांच दशकीय इस सफर में जो कुछ हासिल किया है, उसने विकसित देशों को भी चमत्कृत किया है. खास तौर से खर्च के मामले में. बात चाहे चंद्रयान या मंगलयान की हो या फिर सैटेलाइट प्रक्षेपण की, इन सारे मोर्चों पर सीमित खर्च में सफलता की जो दर इसरो की रही है, वह दुनिया के अन्य अंतरिक्ष संगठनों के लिए सपना ही है.