उत्तर प्रदेश में किए मंथन के बाद भाजपा की चिंता साफ दिखने लगी है. वहां के उपमुख्यमंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान, जिसमें सत्ता से बड़ा संगठन को बताना, कई तरह के संदेश देता है. यह सही है कि भाजपा को 2024 के आम चुनावों में ऐसे नतीजों की उम्मीद हरगिज नहीं थी. लेकिन नतीजों को झुठलाया नहीं जा सकता. रही-सही कसर अभी विभिन्न प्रांतों से आए विधानसभा के उपचुनावों ने पूरी कर दी.
13 सीटों में महज 2 पर ही भाजपा की जीत बताती है कि परिणामों के पीछे भले ही यह कहा जाए कि जहां जिसकी सरकार रही वही जीता लेकिन उत्तराखंड और बिहार के नतीजे बताते हैं कि ऐसा नहीं है. अब उत्तरप्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. साथ ही जिस तरह सोमवार को महाराष्ट्र में राजनीतिक गहमा-गहमी रही और छगन भुजबल ने शरद पवार से दरवाजे पर लंबे इंतजार के बाद मुलाकात की, उसके सियासी मायने बहुत गहरे हैं.
निश्चित रूप से विधानसभा के उपचुनावों के नतीजों से राज्य सरकारों को कोई ज्यादा फर्क पड़ता नहीं है. लेकिन नतीजों के पीछे के कारणों, संकेतों और चर्चाओं की अनदेखी भी महंगी पड़ सकती है. अभी हुए विधानसभा उपचुनावों के नतीजों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है. इसके पीछे युवाओं में बेरोजगारी की पीड़ा, बार-बार प्रश्नपत्र लीक की घटनाएं, दल-बदल के बाद चुनाव में वही चेहरे और उनकी हार के मायने भी समझने होंगे. भाजपा को सोचना होगा कि जिस पार्टी को अनुशासन का उदाहरण माना जाता था, खुद दिग्गज यह बात कहते नहीं अघाते थे, वहीं से विरोध और चेतावनी के स्वर निकलना कतई साधारण नहीं कहे जा सकते.
इस सबके पीछे कहीं-न-कहीं भाजपा के वो कैडर बेस कार्यकर्ता हैं जो अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही पार्टी से जुड़े हैं. वे आज बाहरी लोगों को कतार लगाकर प्रवेश मिलने से कहीं-न-कहीं उपेक्षित हो रहे हैं. संगठन समर्पित लोगों से चलता है. यदि वही उनके चलते खुद को पीछे पाएंगे जो कल तक कोसते थे तो इसके पीछे के मनोभाव और प्रभाव को कैसे नकारा जा सकता है?
2014 के बाद भाजपा में पहली बार इतना अंतर्कलह दिख रहा है, वह भी खुल कर. नेता या विधायक अपने बयान देकर भले यू-टर्न ले लें लेकिन जो कह दिया वह तो राजनीतिक वायुमंडल में तैरता ही रहता है. हालांकि भाजपा में अपने प्रदर्शन और संगठन दोनों को लेकर मंथन जारी है. लगातार प्रयोगधर्मी पार्टी की सरकार ने कई तरह के प्रयोग जरूर किए लेकिन अब मतदाता इससे छिटकता दिख रहा है. भाजपा को इस आहट, उसमें छिपे संकेतों को समझने के साथ मजबूत होते विपक्ष और उसके नेताओं पर निजी हमलों से भी बचना होगा क्योंकि जनमानस को कहीं-न-कहीं यह सब नहीं भा रहा है.