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ब्लॉग: धर्म के नाम पर घृणा फैलाने की प्रवृत्ति ठीक नहीं

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: January 6, 2022 12:27 IST

पिछले कुछ दिनों में धर्म के नाम पर की जा रही लफ्फाजी और ज्यादतियों में जिस तरह की बढ़ोत्तरी हुई है, वह निश्चित रूप से चिंता की बात है. उपराष्ट्रपति को यह कहना पड़ा कि ‘अपने धर्म का पालन अवश्य करें पर घृणा फैलाने वाली गतिविधियों से बचें’.

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ठळक मुद्देयह पहली बार नहीं है जब चुनाव-प्रचार के दौरान राजनेताओं को कुछ भी कहते, करते देखा जा रहा है. भारत के नागरिकों को धर्म के नाम पर बांटने की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता. 

कहते हैं युद्ध और प्यार में सबकुछ जायज होता है. मुझे लगता है युद्ध और प्यार के साथ चुनाव को भी जोड़ दिया जाना चाहिए. यह पहली बार नहीं है जब चुनाव-प्रचार के दौरान राजनेताओं को कुछ भी कहते, करते देखा जा रहा है. 

संदर्भ शीघ्र ही पांच राज्यों में होने वाले चुनाव का है. अभी तारीखों की घोषणा तो नहीं हुई, पर हमारे राजनेता, खासतौर पर सत्तारूढ़ दलों के नेता जानते हैं कि घोषणा कभी भी हो सकती है. तब कुछ प्रतिबंध लग जाएंगे, इसलिए वे उससे पहले बहुत कुछ ऐसा करना-कहना चाह रहे हैं, जो बाद में नहीं हो सकेगा.

हर चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल अरबों-खरबों की योजनाओं की घोषणाएं करने लग जाते हैं, आधारशिलाएं रखने लग जाते हैं. आधी-अधूरी योजनाएं उद्घाटित होने लगती हैं. यह सब तो फिर भी गनीमत है, चुनाव में जीत की तमन्ना में वह सब करना भी किसी को गलत नहीं लगता, जो कानून और संविधान के विरुद्ध तो है ही, मनुष्यता के भी खिलाफ है. 

पिछले कुछ दिनों में धर्म के नाम पर की जा रही लफ्फाजी और ज्यादतियों में जिस तरह की बढ़ोत्तरी हुई है, वह निश्चित रूप से चिंता की बात है.धार्मिक स्थलों और धार्मिक गतिविधियों को लेकर जिस तरह की घटनाएं हाल में घट रही हैं, उन्हें देखते हुए ही हमारे उपराष्ट्रपति ने केरल में एक धार्मिक आयोजन में उन सबको चेतावनी देना जरूरी समझा था, जो धर्म के नाम पर वह सब कर रहे हैं जिसे अधर्म ही कहा जा सकता है. 

केरल में आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि देश में कुछ तत्व अपने धर्म के पालन से कहीं ज्यादा दूसरे के धर्म के पालन में रोड़े अटकाने में विश्वास करने लगे हैं. 

देश के अलग-अलग हिस्सों में, पिछले कुछ दिनों में सांप्रदायिक तनाव के बढ़ने की घटनाओं के संदर्भ में ही उपराष्ट्रपति को यह कहना पड़ा कि ‘अपने धर्म का पालन अवश्य करें पर घृणा फैलाने वाली गतिविधियों से बचें’. 

उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहना जरूरी समझा कि घृणा फैलाने वाली बातें करना भारतीय संस्कृति, विरासत, संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है. उन्होंने यह भी कहा कि पंथ-निरपेक्षता हर भारतीय के खून में है और इसके लिए ही पूरी दुनिया में भारत की इज्जत की जाती है.

यह पहली बार नहीं है जब हमारे किसी नेता ने पंथ-निरपेक्षता को रेखांकित करते हुए ऐसा कहा है, पर इस समय उपराष्ट्रपति द्वारा यह कहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. 

विविधता में एकता का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले हमारे देश में आज धर्म को लेकर जिस तरह की हवा फैलाई जा रही है, वह हर विवेकशील भारतीय के लिए चिंता की बात होनी चाहिए.

लगभग बीस साल पहले, सन् 2003 में, हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चेन्नई में आयोजित एक समारोह में कहा था कि भारत हमेशा एक खुला, समावेशी और सहनशील राष्ट्र रहा है और रहेगा. यहां हर धर्म के मानने वाले को अपने धर्म का अनुसरण करने की आजादी रहेगी. ऐसा इसलिए नहीं होगा कि हमारा संविधान यही कहता है बल्कि इसलिए भी होगा कि यह खुलापन, सहनशीलता और समावेशी प्रवृत्ति हमारी प्राचीन सभ्यता की जीती-जागती परंपरा है.

देश की पहली भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री को उद्धृत करते हुए यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है कि बीस साल पहले वाजपेयीजी ने जो आशा और विश्वास व्यक्त किया था, उनके अनुयायी आज उसके प्रति कितने निष्ठावान हैं?

ऐसा नहीं है कि पहले हमारे यहां धार्मिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिशें नहीं हुईं, स्वतंत्र भारत में, दुर्भाग्य से, सांप्रदायिक दंगों का एक शर्मनाक इतिहास रहा है. 

इनके लिए किसी एक धर्म के अनुयायियों को ही दोषी ठहराना भी गलत होगा. लेकिन इस सच्चाई से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता कि दंगे कराने और दंगे रोकने में बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है. 

हमारे संविधान के अनुसार, और मानवीय परंपराओं के अनुसार भी, अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व निभाना बहुसंख्यकों का कर्तव्य है. 

सच कहें तो सहअस्तित्व हमारी विवशता भी है और विशेषता भी. धर्म के आधार पर किसी को दूसरे दर्जे का नागरिक समझने की मानसिकता अपने आप में एक अपराध है. जाने-अनजाने इस अपराध को करने वाले वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी महान संस्कृति को झूठा सिद्ध करने के भी अपराधी हैं.

उचित तो यह होता कि हरिद्वार और रायपुर में धार्मिक वैमनस्य फैलाने की जो कोशिशें हुईं, सारे देश में उसका प्रतिकार होता. भारत के नागरिकों को धर्म के नाम पर बांटने की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता. 

हम किसी भी धर्म को मानने वाले हों, पहले भारतीय हैं. राष्ट्रवाद का यही मतलब होता है. सकारात्मकता हमारी सोच और व्यवहार का हिस्सा बननी चाहिए. देश को हिंदू-मुसलमान या ईसाई आदि में बांट कर हम कुल मिलाकर देश के प्रति गद्दारी ही करते हैं. 

हमारी सरकारें बात-बात पर किसी को राष्ट्र-विरोधी घोषित करती रहती हैं, लेकिन धर्म के नाम पर देश को बांटने की प्रवृत्ति से अधिक राष्ट्र-द्रोह और क्या हो सकता है? और ऐसी कोशिशों पर चुप्पी को क्या कहा जाएगा?

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