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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः 75 वर्ष की आयु सीमा सरकार के लिए नहीं!

By हरीश गुप्ता | Updated: July 23, 2025 03:16 IST

स्पष्टीकरण शायद इस बात पर बार-बार उठने वाली बहस को शांत करने का एक तरीका है कि आगामी सितंबर में 75 साल की उम्र होने पर प्रधानमंत्री मोदी सेवानिवृत्त होंगे या नहीं.

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ठळक मुद्देस्पष्ट किया कि यह सिद्धांत सरकार में कार्यरत लोगों पर लागू नहीं होता. आरएसएस का सिद्धांत केवल उसके प्रमुख संगठनों पर लागू होता है, सरकार पर नहीं.नए विचारों का संचार करने के लिए 75 वर्ष की आयु सीमा लागू की जा रही है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक प्रमुख पदाधिकारी, जो इसके एक प्रमुख संगठन के प्रमुख हैं, ने 75 वर्ष की आयु के बाद सेवानिवृत्ति के बारे में एक दिलचस्प व्याख्या प्रस्तुत की.  उन्होंने कहा कि आरएसएस पिछले दो दशकों से न केवल अपने लिए, बल्कि अपने अधिकांश प्रमुख संगठनों के लिए भी इसी सिद्धांत का दृढ़तापूर्वक पालन कर रहा है. कुछ बाध्यताओं के कारण कुछ अपवाद भी हो सकते हैं, लेकिन 75 वर्ष की आयु होने के बाद सेवानिवृत्ति का सिद्धांत सर्वोपरि है. वह व्यक्ति संगठन में सलाहकार या किसी समूह के सदस्य के रूप में सक्रिय रह सकता है, लेकिन वह किसी कार्यकारी पद पर नहीं रह सकता. हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि यह सिद्धांत सरकार में कार्यरत लोगों पर लागू नहीं होता. आरएसएस का सिद्धांत केवल उसके प्रमुख संगठनों पर लागू होता है, सरकार पर नहीं.

पहले, आरएसएस अपने पदाधिकारियों के लिह इस सिद्धांत का पालन करता था कि वे तब तक काम करते रहें जब तक वे अक्षम न हो जाएं, पद पर रहते हुए उनकी मृत्यु न हो जाए या वे स्वयं सेवानिवृत्ति का विकल्प न चुन लें. लेकिन पिछले लगभग दो दशकों से, संगठन को युवा बनाए रखने और नए विचारों का संचार करने के लिए 75 वर्ष की आयु सीमा लागू की जा रही है.

हालांकि, यह फॉर्मूला सरकार चलाने के लिए नहीं है, जहां अलग-अलग मानदंड लागू होते हैं और मजबूरियां अलग-अलग होती हैं. आरएसएस ने सरकारी पदाधिकारियों से कभी 75 साल की उम्र के बाद सेवानिवृत्त होने के लिए नहीं कहा है.  यह उसके व्यापक अनुशासन का हिस्सा हो सकता है. लेकिन यह निर्णय लेना प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़ दल का विशेषाधिकार है. यह स्पष्टीकरण शायद इस बात पर बार-बार उठने वाली बहस को शांत करने का एक तरीका है कि आगामी सितंबर में 75 साल की उम्र होने पर प्रधानमंत्री मोदी सेवानिवृत्त होंगे या नहीं.

हिंदी-चीनी भाई-भाई नहीं, लेकिन बिजनेस भाई!

2020 में गलवान घाटी में हुई घातक झड़प के बाद वर्षों तक बर्फ जमी रहने के बाद, भारत की चीन नीति में एक सूक्ष्म लेकिन स्पष्ट बदलाव देखने को मिल रहा है. रणनीतिक शत्रुता और आर्थिक प्रतिबंधों से लेकर कूटनीतिक सौहार्द्र और निवेश के नए विचारों तक, नई दिल्ली मेल-मिलाप की संभावनाओं को परख रही है.

सबसे स्पष्ट संकेत भारत के नीति से संबंधित शीर्ष थिंक टैंक नीति आयोग से मिलता है, जिसने चीनी कंपनियों को गृह और विदेश मंत्रालयों से अनिवार्य सुरक्षा मंजूरी के बिना भारतीय कंपनियों में 24 प्रतिशत तक हिस्सेदारी लेने की अनुमति देने का प्रस्ताव दिया है.

वर्तमान में, चीन से होने वाले सभी निवेशों को दोहरी जांच से गुजरना पड़ता है - गलवान घाटी के बाद शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण और तकनीकी घुसपैठ को रोकने के लिए यह उपाय लागू किया गया है. उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआईआईटी), वित्त मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय इस प्रस्ताव की समीक्षा कर रहे हैं, जो दर्शाता है कि इसे गंभीरता से लिया जा रहा है.

नीति आयोग की भूमिका भले ही केवल सलाह देने हो, लेकिन इसके सुझाव अक्सर नीतिगत दिशा तय करते हैं. यह कदम कूटनीतिक पुनर्निर्धारण के संकेतों के साथ मेल खाता है.  विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल ही में अस्ताना में एससीओ शिखर सम्मेलन से इतर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से ‘गर्मजोशी’ से हाथ मिलाया. प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग के बीच संभावित मुलाकात की भी चर्चा है - सीमा पर हुई झड़प के बाद यह पहली संभावित मुलाकात होगी. तो क्या यह कोई उलटफेर है?

बिल्कुल नहीं. यह एक सोची-समझी चाल है - सुरक्षा चिंताओं को नियंत्रण में रखते हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) प्रवाह को पुनर्जीवित करने और आर्थिक नुकसान को कम करने के लिए. भू-राजनीतिक बिसात बदल गई है, और भारत यथार्थवाद और सावधानी के मिश्रण के साथ खुद को ढालता दिख रहा है.  हिंदी-चीनी भाई भाई? अभी नहीं.  लेकिन हिंदी-चीनी बिजनेस भाई? शायद.

समोसा, जलेबी से स्वास्थ्य मंत्रालय बैकफुट पर

स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कार्यालयों और अस्पतालों में समोसे और जलेबी के बगल में ‘तेल और चीनी’ संबंधी सलाह बोर्ड लगाने के कदम ने एक नई बहस छेड़ दी है: केवल पारंपरिक भारतीय स्नैक्स पर ही क्यों जोर दिया जा रहा है, जबकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैकेज्ड अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ इस पर ध्यान देने से बचते रहे हैं?

एम्स नागपुर में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया यह अभियान कोई प्रतिबंध नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य कैफेटेरिया और खाने-पीने की दुकानों पर पोस्टर लगाकर लोकप्रिय स्नैक्स में मौजूद उच्च वसा और चीनी की मात्रा के बारे में जागरूकता बढ़ाना है. ये बोर्ड मोटापे, मधुमेह और हृदय रोग जैसे दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में चेतावनी देते हैं-

यह भारत में बढ़ती जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों के बोझ को कम करने का एक प्रयास है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि समोसा और जलेबी जैसे सड़क किनारे या घर पर मिलने वाले पसंदीदा व्यंजनों पर चुनिंदा ध्यान देना गलत है. एक जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ पूछते हैं, ‘ट्रांस फैट, रिफाइंड चीनी और रासायनिक योजकों से भरे पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के लिए ऐसी सलाह कहां है?’

‘ऐसा क्यों है कि सिरप से भरे टेट्रा-पैक फ्रूट ड्रिंक पर कोई ऑन-साइट चेतावनी नहीं दी जाती, लेकिन हाथ से बनी जलेबी पर नैतिकता की पहरेदारी होती है?’ भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के तहत एक विशेषज्ञ समिति कथित तौर पर लंबे समय से फ्रंट-ऑफ-पैक लेबलिंग दिशानिर्देशों के मसौदे पर काम कर रही है. इसके तहत सभी एचएफएसएस (उच्च वसा, चीनी, नमक) उत्पादों - चाहे वे पैकेज्ड हों या नहीं - के लिए ‘उच्च’ चेतावनी अनिवार्य होगी, लेकिन उद्योगों के विरोध के कारण प्रगति रुक गई है.

सरकार का कहना है कि मौजूदा सलाह बस एक पहला कदम है. लेकिन आलोचकों का तर्क है कि फिलहाल, बेचारा समोसा उस पोषण अभियान का शिकार बन गया है.  एक मीम में मजाक किया गया, ‘समोसा परोसा गया. पैकेटबंद चिप्स? अभी भी आराम कर रहे हैं.’

थरूर की मैंगो पार्टी  

शशि थरूर की 24 जुलाई को होने वाली मैंगो पार्टी ने राजनीतिक हलकों में, खासकर गुटबाजी से जूझ रही कांग्रेस में, हलचल मचा दी है.  थरूर के ‘असंतुष्ट’ खेमे में होने के कारण, मेहमानों की सूची में विपक्षी नेताओं के भी शामिल होने की उम्मीद है.  माना जा रहा है कि थरूर कांग्रेस नेताओं को भी आमंत्रित करेंगे.

बेशक, कुछ भाजपा नेता आम का स्वाद लेने और कांग्रेस नेताओं के मुरझाए चेहरों का आनंद लेने के लिए वहां मौजूद होंगे.  इन अटकलों के बीच, राहुल गांधी ने वरिष्ठ नेता ए.के. एंटनी से मिलने के लिए तिरुवनंतपुरम का एक गुप्त दौरा किया.

वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के साथ होने के बावजूद, राहुल ने उन्हें विदा किया और एंटनी से 15 मिनट तक अकेले में बात की. थरूर इस बातचीत में शामिल थे या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन उनकी उपस्थिति महत्वपूर्ण है. आंतरिक अशांति से जूझ रही पार्टी के लिए, अब एक आम (मैंगो) पार्टी भी वफादारी की कसौटी बन गई है.  

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